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आधुनिक भजन: आस्था या मनोरंजन

आजकल भजन अपने मूल स्वरूप से बहुत दूर होते जा रहे हैं। पहले भजन एक ऐसा माध्यम थे, जिनसे भक्त अपने आराध्य से गहराई से जुड़ पाते थे। ये केवल गीत नहीं थे, बल्कि आत्मा की पुकार थे जो ईश्वर तक पहुंचती थी। परंतु वर्तमान समय में भजन, खासकर फ़िल्मी धुनों पर आधारित भजन, न केवल अपनी गंभीरता और श्रद्धा खो चुके हैं, बल्कि वे एक प्रकार के मनोरंजन का माध्यम बनकर रह गए हैं। जिन धुनों पर पहले नाच-गानों और नाटकीय गीतों का प्रयोग होता था, अब उन्हीं पर भक्ति गीत गाए जा रहे हैं, जिन पर लोग बेहूदे और अशोभनीय ढंग से कूदते-फांदते हैं। यह देखकर ऐसा प्रतीत होता है मानो भक्ति का सही अर्थ ही खो गया हो। भजन सुनने और गाने का उद्देश्य कभी भी लोगों को झूमने या शोर मचाने के लिए नहीं था, बल्कि वह आत्म-साक्षात्कार, ध्यान और आध्यात्मिक उन्नति के लिए था।

एक उदाहरण से इस बात को और स्पष्ट किया जा सकता है। हाल ही में एक भजन बहुत प्रचलित हुआ जिसमें माता गौरा (पार्वती जी) शिव जी से शिकायत कर रही हैं कि वह उनसे और उनकी भांग से परेशान हो गई हैं। इस भजन को हास्य और हल्के-फुल्के अंदाज़ में प्रस्तुत किया गया है, और लोग इस पर ठहाके लगाते हुए नाचते हैं। यह न केवल एक धार्मिक चरित्र का मज़ाक उड़ाने जैसा प्रतीत होता है, बल्कि पार्वती जी की तपस्या और श्रद्धा का भी अपमान है। हमारे ग्रंथों में वर्णित है कि माता पार्वती ने वर्षों तक कठिन तपस्या की थी शिव जी को पति रूप में पाने के लिए। यह तपस्या उनकी भक्ति और दृढ़ निष्ठा का प्रतीक थी। ऐसे पवित्र और आदर्श पात्रों को हास्य का विषय बना देना और उस पर नाचना, क्या हमारी आस्था का अपमान नहीं है?
भजन बनाने का मूल उद्देश्य था — ईश्वर की भक्ति में लीन होना, उनके गुणों का स्मरण करना, और अपने मन, वाणी व कर्म को ईश्वर की ओर मोड़ना। भजन एक सेतु थे, जो भक्त और भगवान के बीच की दूरी को कम करते थे। किंतु आज के भजन इस उद्देश्य से बिलकुल भटक चुके हैं। उनमें न भाव है, न श्रद्धा, न ही कोई अध्यात्मिक उद्देश्य। वे केवल एक धार्मिक पॉप संगीत बनकर रह गए हैं, जिनमें लाउड म्यूज़िक, तेज़ बीट्स और फिल्मी तर्ज पर गायक के अंदाज़ में ईश्वर का नाम लिया जाता है। और उन पर आज की नई पीढ़ी, विशेषकर शिशु और युवा, बिना किसी अर्थ को जाने नाचने लगते हैं। वे यह नहीं समझते कि यह किसी डिस्को या क्लब में नाचना नहीं, बल्कि एक आध्यात्मिक क्रिया को अपवित्र करने जैसा है।
क्या यह हमारी संस्कृति और आस्था के साथ खिलवाड़ नहीं है? क्या किसी अन्य धर्म में इस प्रकार की छूट दी जाती है, जैसा कि आज हिन्दू धर्म में देखने को मिलता है? किसी अन्य धर्म में अगर कोई धार्मिक गीत या प्रार्थना का मज़ाक उड़ाए, तो तुरंत सामाजिक और कानूनी स्तर पर कड़ी प्रतिक्रिया मिलती है। परंतु हिन्दू धर्म में, जहाँ सहिष्णुता और उदारता की भावना रही है, वहीं इसे कमजोरी मान लिया गया है, और हर कोई अपने हिसाब से भजन का स्वरूप बदलने में लग गया है जिसमें न कोई संयम है और न ही कोई दिशा।
भजनों का उपयोग एक ऐसे शस्त्र की तरह होना चाहिए था जो हमारी आने वाली पीढ़ी को उनके गौरवशाली अतीत, वैभवशाली ग्रंथों और समृद्ध धार्मिक परंपराओं से परिचित करा सके। परंतु आज भजन न तो उन्हें शिक्षा दे रहे हैं, न ही संस्कृति से जोड़ पा रहे हैं। क्या कोई एक भी ऐसा भजन सामने है, जो बच्चों को यह बता सके कि रामायण, महाहिंदुस्तान या भगवद गीता क्या सिखाती है? या वे किस तरह अपने जीवन में धार्मिक मूल्यों को आत्मसात कर सकते हैं?
हमें यह सोचने की ज़रूरत है कि हम भक्ति को किस दिशा में ले जा रहे हैं। यदि समय रहते हमने इस दिशा में सजग कदम न उठाए, तो आने वाली पीढ़ी के लिए भक्ति केवल एक दिखावा बनकर रह जाएगी जिसमें न श्रद्धा होगी, न संस्कार, न कोई आध्यात्मिकता। अतः यह समय है कि हम भजनों को पुनः उनकी गरिमा, उद्देश्य और आध्यात्मिक गहराई के साथ पुनर्स्थापित करें — जिससे यह केवल कानों का आनंद नहीं, आत्मा की यात्रा बन सके।

गरिमा भाटी “गौरी”
फ़रीदाबाद, हरियाणा।

 

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विनोद झा
संपादक नया विचार

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