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एक जवान, 9 पाकिस्तानी टैंक, वीरता की मिसाल है वीर अब्दुल हमीद की कहानी

Veer Abdul Hamid: जब हिंदुस्तान और पाकिस्तान के बीच करीब 60 साल पहले जंग छिड़ी थी, तब एक हिंदुस्तानीय सैनिक अब्दुल हमीद ने ऐसा शौर्य दिखाया कि आज भी उसकी गूंज सुनाई देती है. अकेले दम पर उन्होंने दुश्मन के टैंकों को तबाह किया और लड़ाई की दिशा ही बदल दी. ये कारनामा इतना असाधारण था कि सुनकर आज भी लोग जोश से भर जाते हैं. उन्होंने देश के लिए अपनी जान कुर्बान कर दी, लेकिन उनका बलिदान व्यर्थ नहीं गया उन्हें परमवीर चक्र से सम्मानित किया गया। अब्दुल हमीद सिर्फ एक नाम नहीं, बल्कि साहस, देशभक्ति और बलिदान का प्रतीक हैं, जो कि युवाओं के लिए प्रेरणास्रोत है.

अकेले मोर्चे पर दुश्मन को ध्वस्त करने वाला योद्धा

हिंदुस्तानीय सेना के वीर योद्धा अब्दुल हमीद वो नाम हैं, जो 1965 के युद्ध में अमर हो गया. 10 सितंबर को रणभूमि में लड़ते हुए वे शहीद हुए. लेकिन उससे पहले उन्होंने ऐसा करिश्मा किया, जिसे सुनकर आज भी सीना गर्व से चौड़ा हो जाता है. उन्होंने अकेले ही पाकिस्तान के 9 टैंकों को ध्वस्त कर डाला था. इस अद्भुत वीरता की कहानी जानने से पहले आइए, पहले जानें कौन थे वो साहसी सपूत अब्दुल हमीद- जिनकी बहादुरी इतिहास में सुनहरे अक्षरों में दर्ज है.

एक साधारण गांव से निकला असाधारण सपूत

अब्दुल हमीद का जन्म 1 जुलाई 1933 को यूपी के गाजीपुर जिले के धामूपुर गांव में एक सामान्य परिवार में हुआ था. उनके पिता मोहम्मद उस्मान पेशे से दर्जी थे, पर हमीद के सपनों की सिलाई कुछ और ही थी. देश की सेवा का जज्बा उनमें बचपन से ही गहराई तक भरा था. पढ़ाई में वे अधिक दिलचस्पी नहीं लेते थे. लेकिन कुश्ती, लाठी और निशानेबाज़ी में उनकी प्रतिभा सब को चौंका देती थी. यही जुनून उन्हें महज 20 साल की उम्र में वाराणसी ले गया, जहां वे हिंदुस्तानीय सेना की 4 ग्रेनेडियर्स रेजिमेंट में भर्ती हुए और यहीं से शुरू हुई उनकी वीरता की अमर कहानी.

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घायल अवस्था में भी फहराया तिरंगा

हिंदुस्तानीय सेना में भर्ती होने के बाद अब्दुल हमीद की तैनाती देश के कई महत्वपूर्ण हिस्सों में हुई. अमृतसर, जम्मू-कश्मीर, आगरा, दिल्ली, रामगढ़ और अरुणाचल प्रदेश जैसे इलाकों में उन्होंने अपने कर्तव्यों को पूरी निष्ठा से निभाया. 1962 के हिंदुस्तान-चीन युद्ध के दौरान उनकी बटालियन ने नमका-छू की कठिन लड़ाई में हिस्सा लिया. इस संघर्ष में अब्दुल हमीद गंभीर रूप से घायल हो गए. लेकिन हौसला जरा भी कमजोर नहीं पड़ा. वीर अब्दुल हमीद ने घुटनों और कोहनियों के दम पर 14 से 15 किमी की दूरी तय की और सरहद पर तिरंगा झंडा फहराया. इस अद्वितीय साहस और दृढ़ संकल्प के लिए उन्हें राष्ट्रीय सेना मेडल से सम्मानित किया गया.

ऑपरेशन जिब्राल्टर: पाकिस्तान की चाल और हिंदुस्तान का जवाब

1965 में पाकिस्तान ने ऑपरेशन जिब्राल्टर के तहत जम्मू-कश्मीर में घुसपैठ की साजिश रच डाली, जिसका हिंदुस्तान ने मुंहतोड़ जवाब दिया और युद्ध की शुरुआत हो गई. उस समय अब्दुल हमीद पंजाब के तरनतारन जिले में स्थित खेमकरण सेक्टर में तैनाती थी. पाकिस्तान के पास उस वक्त अमेरिकी बनाए हुए पैटन टैंक थे, जिन्हें तकनीकी रूप से बेहद शक्तिशाली और लगभग अजेय माना जाता था. 8 सितंबर 1965 की रात इन्हीं टैंकों के बल पर पाकिस्तानी सेना ने खेमकरण के आसपास के इलाके में भीषण हमला कर दिया. लेकिन उन्हें अंदाजा नहीं था कि एक हिंदुस्तानीय जवान उनका स्पोर्ट्स बदल देगा.

जब अकेले अब्दुल हमीद ने दुश्मन के टैंक पर साधा निशाना

उस समय अब्दुल हमीद अपनी कंपनी में क्वार्टर मास्टर हवलदार के पद पर तैनात थे. उनके पास केवल एक 106 मिमी की रिकॉइललेस राइफल थी और उसी के सहारे उन्हें पाकिस्तानी सेना के अजेय माने जाने वाले पैटन टैंकों का सामना करना था. उन्होंने अपनी राइफल को एक जीप पर लगाया और चुपचाप गन्ने के खेतों में छिपकर मोर्चा संभाल लिया.

आठ टैंक ध्वस्त, नौवां बना शहादत की वजह

गजब की सूझबूझ और साहस के साथ उन्होंने दुश्मन के टैंकों पर निशाना साधना शुरू किया. देखते ही देखते उन्होंने एक के बाद एक आठ पाकिस्तानी टैंकों को तबाह कर डाला. पाकिस्तानी सेना में हड़कंप मच गया, वे समझ ही नहीं पाए कि यह हमला कहां से हो रहा है. अब्दुल हमीद की इस अद्वितीय वीरता ने पूरे युद्ध का रुख पलट दिया. लेकिन जब वे नौवें टैंक को निशाना बना रहे थे, तभी दुश्मन की ओर से दागा गया एक गोला उनकी जीप पर आ गिरा. अब्दुल हमीद वीरगति को प्राप्त हो गए. लेकिन उनके साहस ने हिंदुस्तान को गर्व और जीत दोनों दिलाई.

शहीद की स्मृति को किया अमर, बना प्रेरणा का केंद्र

अब्दुल हमीद की शहादत को सम्मान देने के लिए उनकी यूनिट, 4 ग्रेनेडियर्स ने असल उत्तर में उनकी कब्र पर एक भव्य समाधि का निर्माण कराया. हर साल उनके बलिदान दिवस पर वहां मेला लगता है, जहां देशभर से लोग उनकी वीरता को नमन करने आते हैं. उनके पैतृक गांव,गाजीपुर के धामूपुर में आज उनके नाम पर एक डिस्पेंसरी, पुस्तकालय और स्कूल संचालित होते हैं, जो अगली पीढ़ियों को उनकी गौरवगाथा की याद दिलाते हैं. 28 जनवरी 2000 को हिंदुस्तान प्रशासन के डाक विभाग ने वीर अब्दुल हमीद की वीरता की अमर कहानी को याद करते हुए 3 रुपए मूल्य का एक डाक टिकट जारी किया. इस टिकट में अब्दुल हमीद को उनकी जीप पर सवार होकर रिकॉइललेस राइफल चलाते हुए दर्शाया गया- जैसे मानो वो आज भी देश की रक्षा के लिए मोर्चे पर डटे हों.

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विनोद झा
संपादक नया विचार

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