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केरल का वैचारिक भविष्य तय करेगा अगला चुनाव

Kerala Election : जिस केरल की पहचान उसके शानदार सामाजिक सुधार और प्रगतिशील नेतृत्व के लिए थी, आज वह बड़े नेतृत्वक बदलाव का सामना कर रहा है. जो राज्य कभी देश में वामपंथ और सेक्युलर तर्क के वैचारिक केंद्र बिंदु के रूप में जाना जाता था, वह अब सांस्कृतिक राष्ट्रवाद का गढ़ बनता जा रहा है. सत्ता नेतृत्व की दृष्टि से यह राज्य लगभग आधी सदी तक दो गठबंधनों- एलडीएफ (लेफ्ट डेमोक्रेटिक फ्रंट) और कांग्रेस के नेतृत्व वाले यूडीएफ (यूनाइटेड डेमोक्रेटिक फ्रंट) द्वारा बारी-बारी से शासित होता रहा. पर ये दोनों वैकल्पिक गठबंधन अब कमजोर पड़ते जा रहे हैं. इनकी जगह भाजपा के रूप में एक तीसरा ध्रुव उभर रहा है, और जिस संघ परिवार के लिए वहां पैर जमाने की कल्पना तक असंभव थी, उसकी उपस्थिति राज्य के सामाजिक-नेतृत्वक परिदृश्य में दिखाई देने लगी है.

अगले वर्ष केरल में होने जा रहे विधानसभा चुनाव ने इस राज्य को वैचारिकताओं, पहचानों और सत्ता की रणभूमि में बदल दिया है. मुख्यमंत्री पिनराई विजयन के नेतृत्व वाले एलडीएफ और राज्य कांग्रेस के प्रमुख सनी जोसफ के नेतृत्व में यूडीएफ राज्य के जनाधार को पकड़े रखने की कोशिश कर रहे हैं, जो तेजी से उनके पैरों के नीचे से खिसक रहा है. जबकि भाजपा और संघ मिल कर राज्य की नेतृत्व में राष्ट्रवाद व सांस्कृतिक गौरव की भावना भर रहे हैं. स्थिति यह है कि राज्य में हर विवाद, हर नैतिक बहस तथा हर सामुदायिक गतिविधि को आगामी चुनाव के नजरिये से देखा जा रहा है. जाहिर है कि केरल में होने वाला चुनाव सिर्फ मतदान तक सीमित नहीं है, इसे भविष्य की वैचारिक पहचान का जनमत संग्रह भी समझा जाना चाहिए.

चुनाव से पहले राज्य विवादों में घिर गया है और इसमें वामपंथ की वैचारिक भंगुरता ही सामने आयी है. एलडीएफ ने आरएसएस के नेता के वाल्सन थिलनकेरी के खिलाफ एक पुराने आरोप को दोहरा कर विवादों की शुरुआत की. उसने वाल्सन पर एक ऐसे व्यक्ति का यौन शोषण करने का आरोप लगाया, जिसने बाद में आत्महत्या कर ली थी. वाम मोर्चे ने करीब एक दशक पुराने मामले को तब उछाला है, जब राज्य में आरएसएस का असर बढ़ रहा है. ठीक इसी समय शिक्षा मंत्री वी सिवनकुट्टी ने, जो माकपा से हैं, स्कूलों में मुस्लिम छात्राओं द्वारा हिजाब ओढ़ने का यह कहते हुए समर्थन किया है कि यह व्यक्तिगत स्वतंत्रता का मुद्दा है. भाजपा के राज्य प्रभारी राजीव चंद्रशेखर ने इसे तुष्टीकरण का उदाहरण बताते हुए सिवनकुट्टी की सख्त आलोचना की है. दिलचस्प यह है कि कांग्रेस प्रवक्ता रमेश चेनीथल्ला इस पूरे मामले में आरएसएस का समर्थन कर रहे हैं.

इस साल की शुरुआत में भाजपा शासित छत्तीसगढ़ में कैथोलिक ननों को हिरासत में लेने की निंदा कांग्रेस और वाम पार्टियों ने की थी. जबकि भाजपा ने कांग्रेस और वाम पार्टियों के रवैये की आलोचना की थी. हालत यह है कि चुनाव से पहले प्रशासन के कामकाज के बजाय पहचान, नैतिकता और धर्म ने बहस का रूप ले लिया है. दूसरी तरफ बगैर किसी स्पष्ट रुख के कांग्रेस अवसरवादी प्रवृत्ति का परिचय देते हुए वाम मोर्चे का समर्थन और भाजपा का विरोध कर रही है. जिस केरल का नेतृत्वक विमर्श कभी तर्कवाद और कल्याणकारी सोच पर केंद्रित होता था, वहां आज चुनाव से पहले की धड़ेबंदी, नैतिक अस्पष्टता और पहचान की नेतृत्व हावी है.

वर्ष 2024 के लोकसभा चुनाव के परिणाम का असर भी विधानसभा चुनाव पर होना है. पिछले लोकसभा चुनाव में भाजपा ने पहली बार केरल में एक सीट जीती, जब सुरेश गोपी ने त्रिशूर सीट जीती. राज्य में भाजपा का वोट प्रतिशत भी बढ़ कर 16 प्रतिशत के करीब हो गया, जबकि तिरुवनंतपुरम, पलक्कड और त्रिशूर में पार्टी को करीब 25 प्रतिशत वोट मिले. अलबत्ता केरल की जनसांख्यिकी भाजपा की महत्वाकांक्षा में बाधक है. वर्ष 2011 की जनगणना के मुताबिक, राज्य की आबादी में हिंदू 54.73 फीसदी, मुस्लिम 36.56 और ईसाई 18.48 प्रतिशत हैं. यानी मुस्लिम और ईसाई मिल कर आबादी का 45 प्रतिशत हैं. ये दोनों समुदाय न सिर्फ संगठित हैं, बल्कि मस्जिदों, गिरजाघरों, सामुदायिक निकायों और अल्पसंख्यक नेतृत्वक संगठनों में सक्रिय भूमिका निभाते हैं.

राज्य में भाजपा का वोट शेयर भले बढ़ रहा है, पर निर्णायक बढ़त से बहुत पीछे है. आरएसएस राज्य के एकतरफा विमर्श को बदल सकता है, पर दीर्घावधि में भी भाजपा को राज्य की सत्ता में लाने में वह शायद ही सफल हो पाये. बावजूद इसके सामाजिक बदलाव दिख रहे हैं. जैसे, एझवा समुदाय संघ- भाजपा की पहलों का समर्थक है, तो नायर सर्विस सोसाइटी ने सबरीमला जैसे मुद्दों पर सांस्कृतिक राष्ट्रवाद का समर्थन किया है. मध्य केरल के युवा ईसाई नेता तक अपनी नेतृत्वक निष्ठा का दोबारा आकलन कर रहे हैं. दरअसल वाम मोर्चे के पास अब जनता को प्रभावित करने के लिए कुछ नहीं है. विजयन और उनके मंत्रियों ने अपनी नीतियों को आकार देने के बजाय विवादों पर खुद को सही ठहराने में ही ज्यादा ऊर्जा खर्च की. बढ़ती मुद्रास्फीति, युवा बेरोजगारी और खाड़ी देशों से प्रवासियों द्वारा भेजे जाने वाले धन में कमी से वाम मोर्चे की नैतिक आभा कमजोर हो रही है.

ऐसे में, केरल का नेतृत्वक वातावरण जटिल बना हुआ है. शानदार साक्षरता दर, सिविल सोसाइटी की सक्रियता और नेतृत्वक रूप से जागरूक मतदाताओं के कारण इस राज्य में ध्रुवीकरण का विरोध होता है. राज्य के अल्पसंख्यक मुस्लिम और ईसाई समुदायों को देखते हुए वहां बहुसंख्यक सोच के आधार पर कोई विचारधारा मजबूत हो ही नहीं सकती. फिर भी संघ परिवार के विस्तार और भाजपा के रणनीतिक कार्यक्रमों के कारण वामपंथ और कांग्रेस को चुनौती देने वाला एक विश्वसनीय विपक्ष तो बन ही गया है.

अगले साल होने वाला विधानसभा चुनाव 1957 के चुनाव के बाद, जब इएमएस नंबूदरीपाद ने राज्य में दुनिया की चुनी हुई पहली कम्युनिस्ट प्रशासन बनायी थी, सबसे महत्वपूर्ण चुनाव साबित होने वाला है. आने वाले चुनाव पर दो चीजें असर डालेंगी. पहला यह कि वैचारिक जड़ता और नेतृत्वक संघर्षों से अप्रभावित युवा पीढ़ी विकास और राष्ट्रीय एकीकरण के प्रति ज्यादा दिलचस्पी दिखा रही है. दूसरा यह कि अल्पसंख्यक तुष्टीकरण पर वाम पार्टियों द्वारा अतिशय जोर दिये जाने ने पारंपरिक हिंदू जनाधार को अलग-थलग कर दिया है. विधानसभा चुनाव से पहले केरल ऐतिहासिक दोराहे पर खड़ा है. चुनाव में राज्य के मतदाता वाम और कांग्रेस के बीच चुनाव करने तक सीमित नहीं रहने वाले. वे केरल के वैचारिक भविष्य का निर्णय करने वाले हैं.
(ये लेखक के निजी विचार हैं.)

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विनोद झा
संपादक नया विचार

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