Ashfaqulla Khan : देश के क्रांतिकारियों ने अपने आंदोलन के लिए जरूरी सरंजाम जुटाने के उद्देश्य से नौ अगस्त, 1925 की रात जिस ऐतिहासिक काकोरी एक्शन को अंजाम दिया था, उससे समूचा ब्रिटिश साम्राज्य हिल उठा था. उस अभियान के अप्रतिम शहीद अशफाकउल्लाह खां थे, जिन्हें मुकदमे के नाटक के बाद 19 दिसंबर, 1927 को फैजाबाद की जेल में शहीद कर दिया गया था. वर्ष 1900 में 22 अक्तूबर को, यानी आज के ही दिन उत्तर प्रदेश के शाहजहांपुर कस्बे में बेगम मजहूरुन्निशां और मुहम्मद शफीकउल्लाह खां की सबसे छोटी संतान के रूप में जन्मे अशफाक ने अपनी जेल डायरी में लिखा है कि अगर आजादी का मतलब इतना ही है कि गोरे आकाओं के बजाय हमारे वतनी भाई सल्तनत की हुकूमत की बागडोर अपने हाथ में ले लें, तो ऐ खुदा, मुझे ऐसी आजादी उस वक्त तक न देना, जब तक तेरी मखलूक में मसावात, यानी बराबरी कायम न हो जाये.
जब उन्हें फांसी होने ही वाली थी, तब देशवासियों के नाम संदेश में उन्होंने देश में सक्रिय कम्युनिस्ट ग्रुप से गुजारिश की थी कि वह जेंटलमैनी छोड़कर देहात का चक्कर लगाये और ऐसी आजादी के लिए काम करे, जिसमें गरीब खुश और आराम से रहें और सब बराबर हों. क्रांतिकारियों की भूली-बिसरी जीवनियों के उत्खनन और उनकी भूली-बिसरी यादों की रक्षा के साथ क्रांतिकारी आंदोलन की चेतना के पुनर्पाठ को समर्पित वरिष्ठ लेखक सुधीर विद्यार्थी के प्रयत्नों से प्रकाशित हो पायी इस जेल डायरी में क्रांतिकारी के तौर पर अशफाक की ईमानदारी व संघर्ष की संपदा तो है ही, कलम की शक्ति भी दिखाई देती है. विद्यार्थी बताते हैं कि काकोरी कांड के बाद गोरों की पुलिस ने 26 सितंबर, 1925 की रात पूरे उत्तर हिंदुस्तान में संदिग्धों के घरों व ठिकानों पर छापे डाले, तो अशफाक ने अपने घर से थोड़ी दूर के एक ईख के खेत में छिपकर उसकी सारी कवायदों को धता बता दी थी.
उसके फौरन बाद वह नेपाल चले गये थे और लौटे तो कानपुर में ‘प्रताप’ के संपादक गणेश शंकर विद्यार्थी के यहां शरण ली थी. बाद में विद्यार्थी जी ने उन्हें बनारस भेज दिया था, जहां से वह चोरी-छिपे तत्कालीन बिहार के पलामू स्थित डालटनगंज चले गये थे. वहां छद्मनाम से एक शायरी के शौकीन इंजीनियर के संरक्षण में काम करने वाले अशफाक खुद को मथुरा जिले का कायस्थ बताया करते थे. वहां रहते हुए उन्होंने बांग्ला सीख ली थी. उन्हीं दिनों उक्त इंजीनियर ने यह जानने के बाद, कि वह हसरत वारसी नाम से शायरी करते हैं, उनका वेतन बढ़ा दिया था. शायरी की एवज में उन्हें मिली वेतनवृद्धि इस अर्थ में महत्वपूर्ण है कि उनकी रचनाएं अब भी पृथक मूल्यांकन की मांग कर रही हैं. बच्चों के लिए लिखने की भी उनमें बड़ी आकांक्षा थी, जिसे वह शहादत के कारण पूरी नहीं कर पाये.
अशफाक ने अपनी हसरतों को दबाया या छिपाया नहीं है. ननिहाल के लोगों की जहां उन्होंने इस कारण कड़ी आलोचना की कि उन लोगों ने 1857 के संग्राम में देशवासियों के बजाय अंग्रेजों की तरफदारी चुनी, वहीं यह लिखने से भी संकोच नहीं किया कि ‘मैं दादा की तरफ से कौमपरस्त और ननिहाल की तरफ से अंग्रेजपरस्त पैदा हुआ, मगर मां का खून कमजोर था. सो, वतनी आजादी का जज्बा बरकरार रहा और आज मैं अपने प्यारे वतन के लिए मौत के तख्ते पर खड़ा हुआ हूं.’
अशफाक ने लिखा कि कुर्बानी के प्रायश्चित से उन्होंने अपने ननिहाल और ददिहाल, दोनों के धब्बों को धोया है. जिन पंडित रामप्रसाद बिस्मिल के साथ उन्होंने शहादत दी और जिनसे उनकी दोस्ती के रंगों को, एक का कट्टर आर्यसमाजी और दूसरे का पक्का मुसलमान होना भी हलका नहीं कर सका, उनके बारे में भी अशफाक यह दर्ज करने से नहीं चूके हैं कि पहली मुलाकात में वह बेहद रुखाई से पेश आये थे. हां, बाद में वह बिस्मिल को यह विश्वास दिलाने में कामयाब हो गये थे कि उनके मन में भी उन्हीं की तरह देश के लिए कुछ करने की ईमानदार ख्वाहिश है.
जब क्रांतिकारियों ने काकोरी में प्रशासनी खजाना लूटने के लिए ऑपरेशन की योजना बनायी, तो अशफाक ने उनकी केंद्रीय समिति में पेश बिस्मिल के इस आशय के प्रस्ताव का कड़ा विरोध किया था. उन्होंने कहा था, ‘हमारा दल अभी मजबूत नहीं हुआ है. उसमें वह शक्ति नहीं है कि प्रशासन से सीधा युद्ध कर सके. इसलिए पहले दल का आधार मजबूत किया जाये.’ उनका एतराज नहीं माना गया, तो किंचित भी बुरा माने बगैर उन्होंने उस ऑपरेशन को सफल बनाने के लिए पूरी निष्ठा के साथ खुद को समर्पित कर दिया. अशफाक ने इस काम के लिए खुद को खुशी-खुशी पेश किया था, तो उसके पीछे का एक उद्देश्य यह भी था कि वह और उनके साथी आगे के स्वतंत्रता संघर्ष के लिए मैदाने अमल तैयार करना चाहते थे. उन्होंने युवाओं से कहा था-‘उठो-उठो सो रहे हो नाहक!’
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