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डा श्यामा प्रसाद मुखर्जी बलिदान दिवस : “तेरा वैभव अमर रहे मां, हम दिन चार रहें न रहें”

Syama Prasad Mookerjee Death Anniversary : (विनय कुमार सिंह का लेख) जिस तरह सन् 1699 की वैशाखी पर्व पर आनंदपुर के केशगढ़ साहिब में दशम गुरु गोविंद सिंह जी के देश-धर्म पर मर-मिटने के आह्वान पर पंजाब के दयाराम खत्री आत्मोत्सर्ग के लिए सबसे पहले आगे आए थे,उसी प्रकार स्वातंत्र्योत्तर हिंदुस्तान की  एकता और अखंडता के रक्षार्थ हिंदुस्तानमाता के आर्त पुकार पर सबसे पहले दौड़ पड़नेवाले महापुरुष थे- हिंदुस्तानीय जनसंघ के संस्थापक-अध्यक्ष और अपने युग के अप्रतिम तेजस्वी सांसद डा.श्यामा प्रसाद मुखर्जी. आज ही, 23 जून 1953 को डा.मुखर्जी हिंदुस्तानमाता के मणि-किरीट जम्मू कश्मीर में मातृभूमि की बलिवेदी पर चढ़ गए थे. स्वाधीन हिंदुस्तान की अखंडता और प्रभुसत्ता के लिए वह प्रथम बलिदान था जो इतिहास के पन्नों में देदीप्यमान है.

स्वाधीनता के बाद हिंदुस्तान की 565 में 564 रियासतों का विलय लोहपुरुष सरदार पटेल की दृढ़ता और नीति-निपुणता के चलते हिंदुस्तानीय संघ में हो गया था. लेकिन जम्मू-कश्मीर के हिंदुस्तानीय संघ के साथ एकीकरण के प्रश्न पर तत्कालीन प्रधानमंत्री पं.जवाहरलाल नेहरू गृहमंत्री सरदार पटेल के आड़े आ गए और जम्मू कश्मीर मुस्लिम कॉन्फ्रेंस के नेता (बाद में नेशनल कॉन्फ्रेंस) शेख अब्दुल्ला से गुमराह हो उन्होंने अपरिपक्व रवैया अपनाया जिससे कश्मीर-समस्या खड़ी हुई. उधर मोहम्मद अली जिन्ना और पाकिस्तान के प्रधानमंत्री लियाकत खां की ललचाई दृष्टि ‘धरती के स्वर्ग’ कश्मीर पर थी;सो कवायलियों की आड़ में पाकिस्तान ने 22 अक्तूबर 1947 को जम्मू कश्मीर पर धावा बोल दिया.

वे कश्मीर घाटी के इलाकों में जन-धन की भीषण तबाही मचाते हुए श्रीनगर पर कब्जे को लक्ष्य कर आगे बढ़ने लगे. कोटली और मीरपुर में हजारों हिंदुस्तान-भक्तों,विशेषकर हिंदुओं का लोमहर्षक संहार हुआ. स्थिति बिगड़ती देख सरदार पटेल और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के तत्कालीन सरसंघचालक श्री गुरुजी गोलवलकर तथा अपने दीवान जस्टिस मेहरचंद महाजन की सलाह को ध्यान में रखते हुए कश्मीर के महाराजा हरिसिंह ने 26 अक्टूबर 1947 को राज्य के हिंदुस्तानीय संघ में विलय-पत्र पर हस्ताक्षर कर दिया और यह प्रदेश अन्य रियासतों की ही भांति हिंदुस्तान का अभिन्न अंग हो गया. विलय के अगले दिन हिंदुस्तानीय सेना श्रीनगर पहुंची और मेजर सोमनाथ शर्मा,ब्रिगेडियर राजिंदर सिंह तथा मेजर उस्मान की अगुआई में सटीक सैन्य करवाई से घबराकर पाकिस्तानी सिर पर पैर रखकर भागने लगे. लेकिन इसी बीच प्रधानमंत्री पं.नेहरू के तीन आत्मघाती कदम बढ़े.

पहले तो वे कश्मीर घाटी को पाक-आक्रांताओं से पूरी तरह मुक्त किए बिना युद्ध-विराम कर मामले को संयुक्त राष्ट्रसंघ में ले गए. दूसरा यह कि उन्होंने कश्मीर के हिंदुस्तान या पाकिस्तान में रहने के सवाल पर राष्ट्रसंघ के ‘जनमत संग्रह’ (plebiscite) के प्रस्ताव को हामी भर दी. उनके इन निर्णयों से कश्मीर की तकदीर मानो कच्चे सूते में बंधी लटक गई. इसके बाद भी,पं.नेहरू की सबसे बड़ी हिमालयी भूल यह रही कि संविधान सभा में सरदार पटेल,डा.अंबेदकर,डा.श्यामा प्रसाद मुखर्जी और हसरत मोहानी सहित अपने मंत्रिमंडल के अधिकांश सदस्यों के विरोध के बावजूद शेख अब्दुल्ला की सलाह पर उन्होंने सन् 1949 में हिंदुस्तानीय संविधान में धारा 370 के तहत कश्मीर को ‘विशेष दर्जा’ और 1954 में 35-ए के उपबंध के अंतर्गत राज्य में ‘दोहरी नागरिकता’ की व्यवस्था लागू कर दी. दशकों तक ये अलगाववादी उपबंध हिंदुस्तान के शरीर में नासूर की तरह चुभते रहे–तबतक,जबतक कि 5 अगस्त 2019 को वर्तमान की भाजपा प्रशासन ने अपने वायदे के मुताबिक इसे पूरी तरह रद्द नहीं कर दिया.

इसी बीच सन् 1951 में जम्मू कश्मीर राज्य-विधानसभा के लिए प्रथम चुनाव हुए जिसके परिणामस्वरूप राज्य-शासन की बागडोर शेख अब्दुल्ला के हाथों आ गई. शेख ने कश्मीर के विशेष दर्जे के तहत राज्य में ‘अलग विधान,अलग निशान (झंडा) और अलग प्रधान’ (प्रधानमंत्री) की व्यवस्था लागू की. शेख साहब बड़े शान से राज्य के वजीरे आजम (प्रधानमंत्री) कहलाते थे. उस वक्त वहां हिंदुस्तान का राष्ट्रीय तिरंगा फहराना जुर्म था;जो भी देशभक्त वहां तिरंगा फहराने की कोशिस करते,वे अब्दुल्लाशाही की गोलियों के शिकार होते थे. सबसे विचित्र परिपाटी तो यह प्रचलित थी कि शेष हिंदुस्तान के लोगों को जम्मू-कश्मीर प्रविष्ट होने के लिए ‘परमिट’ लेना पड़ता था. स्पष्ट है कि यह सब हिंदुस्तानीय संविधान की मूल भावना — ‘एक राष्ट्र,एक जन’ के विरुद्ध था. कश्मीर के विशेष दर्जे के चलते हिंदुस्तान की संसद वहां आंशिक तौर पर ही प्रभावी थी और राज्य सर्वोच्च न्यायालय के क्षेत्राधिकार से बाहर था.  इन राष्ट्रघाती प्रावधानों की आड़ में पृथकतावादी व पाकपरस्त तत्वों के राष्ट्रद्रोह की आंच से कश्मीर की केसर की क्यारियां मानो झुलस-सी रही थी. अटलजी ने कश्मीर की दयनीयता को अपनी एक कविता में यथार्थ ही लिखा था – “समय की सर्द सांसों ने चिनारों को झुलस डाला.”

ऐसी परिस्थिति में जम्मू कश्मीर प्रजा-परिषद् के प्रधान पं.प्रेमनाथ डोगरा के नेतृत्व में राज्य के देशभक्तों ने शेख अब्दुल्ला द्वारा खड़ी की गई अलगाववादी दीवार को ढहाकर कश्मीर के हिंदुस्तान में पूर्ण विलय के लिए प्रचंड जनांदोलन छेड़ दिया. इसपर शेख-प्रशासन ने क्रूर दमनचक्र चलना शुरू किया जिसमें दर्जनों देशभक्त शहीद हुए और बड़ी संख्या में अमानवीय जेल-यातना के शिकार हुए.

7 अगस्त 1952 को लोकसभा में हिंदुस्तानीय जनसंघ के अध्यक्ष व सांसद डा.श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने प्रजा परिषद् के देशभक्तो पर किए जा रहे निरंकुश दमनकारी कारवाइयों के खिलाफ तर्कपूर्ण आवाज बुलंद की. उनके शब्द थे,”प्रधानमंत्री पं.नेहरू की कश्मीर नीति ‘हिंदुस्तान के  ‘बाल्कनीकरण’ (विखंडन) की ओर ले जा सकती है.” इसपर पं.नेहरू ने प्रजा परिषद्,जनसंघ और डा.मुखर्जी को साम्प्रदायिक करार दिया. तब डा.मुखर्जी ने दिसंबर 1952 में जनसंघ के कानपुर अधिवेशन में प्रजा परिषद् के राष्ट्रवादी आंदोलन को समर्थन की घोषणा कर दी और भेदभावपूर्ण व राष्ट्रघाती परमिट प्रणाली को तोड़कर जम्मू-कश्मीर जाने का निर्णय लिया. इससे पूर्व अगस्त 1952 में उन्होंने जम्मू का दौरा किया था और वहां परेड मैदान की एक विशाल जनसभा में यह एलान किया था–“या तो विधान लेंगे या फिर जान दे देंगे.” विधान लेने का तात्पर्य जम्मू-कश्मीर के ‘अलग विधान’ की जगह वहां हिंदुस्तानीय संविधान लागू कराना था.

8 मई 1953 को डा.मुखर्जी ने वैद्य गुरुदत्त,पं.टेकचंद शर्मा,पं. प्रेमनाथ डोगरा,प्रो.बलराज मधोक,अटल बिहारी वाजपेयी सहित आठ साथियों के साथ नई दिल्ली से जम्मू के लिए प्रस्थान किया। मार्ग में पड़नेवाले स्टेशनों पर हजारों की देशभक्त भीड़ ने उनका जोरदार अभिनंदन किया. जालंधर स्टेशन पर गुरदासपुर के कलक्टर ने उन्हें सूचित किया कि ‘हिंदुस्तान प्रशासन उन्हें बिना परमिट कश्मीर घुसने नहीं देगी’, लेकिन उनका संकल्प अडिग रहा. 11 मई को वे पठानकोट पहुंचे और वहां से आगे सड़क मार्ग द्वारा रावी नदी के ऊपर माधोपुर चेक-पोस्ट पर ‘एक देश में दो विधान,दो निशान और दो प्रधान नहीं चलेंगे’ के नारे के साथ जम्मू-कश्मीर में प्रविष्ट हुए,जहां उन्हें बंदी बनाकर श्रीनगर के एक कैंप जेल में नजरबंद कर लिया गया. गिरफ्तारी के समय उन्होंने अपने सहयोगियों–अटल बिहारी वाजपेयी और प्रो.बलराज मधोक को दिल्ली लौटने कहा- ‘’अटलजी को इस आदेश के साथ कि दिल्ली पहुंचकर वे देश की जनता को बता दें कि “मैं जम्मू-कश्मीर में प्रवेश कर गया हूं,यद्यपि एक बंदी के रूप में.” जेल में उनके साथ वैद्य गुरुदत्त और पं.टेकचंद शर्मा भी थे. डा.मुखर्जी के साथी और चित्तौड़गढ़ से जनसंघ के लोकसभा-सांसद बैरिस्टर उमाशंकर त्रिवेदी उन्हें जेल से छुड़ाने के लिए 22 जून को अपनी ओर से श्रीनगर उच्च न्यायालय में दायर ‘हैवियस कार्पस’ (बंदी प्रत्यक्षीकरण याचिका) पर सुनवाई जोरदार बहस की, लेकिन इसका परिणाम आने के पूर्व ही, 23 जून 1953 की रात नजरबंदी की अवस्था में ही उनके बहुमूल्य जीवन का ‘रहस्यमय अंत’ हो गया. प.बंगाल के कांग्रेसी मुख्यमंत्री डा.विधानचंद्र राय,राजर्षि टंडन,जयप्रकाश नारायण आदि ने नजरबंद डा.मुखर्जी के ‘मेडिकल मर्डर’ की आशंका जताते हुए शेख अब्दुल्ला की ओर उंगली भी उठाई. जयप्रकाश नारायण ने जेल में डा.मुखर्जी के स्वास्थ्य के प्रति ‘आपराधिक लापरवाही’ को लेकर केंद्र और जम्मू-कश्मीर प्रशासनों की तीखी आलोचना की.

डा.मुखर्जी के आत्मोत्सर्ग ने कश्मीर को बचा लिया था. कश्मीर-प्रवेश के लिए प्रचलित परमिट सिस्टम का अंत हो गया. वहां के लिए ‘अलग प्रधानमंत्री’ का पद निरस्त हुआ और राज्य में तिरंगा शान से लहराने लगा. कुछ समय ही जब हिंदुस्तान प्रशासन को पर्दे के पीछे शेख अब्दुल्ला के ‘राष्ट्रविरोधी खुराफात’ की भनक लगी तो प्रधानमंत्री पं.नेहरू के ही निर्देश पर,9 अगस्त 1953 को उनकी प्रशासन को बर्खास्त कर उन्हें बंदी बना लिया गया. अगर नेहरूजी ने डा.मुखर्जी की देशहित में उठाई गई आवाज पर कान देकर पूर्व में ही शेख के खिलाफ करवाई की होती तो डा.साहब के तेजस्वी जीवन का असमय अंत नहीं हुआ होता और कश्मीर को समय रहते संभाला जा सकता था.

“तेरा वैभव अमर रहे मां,हम दिन चार रहें न रहें”–डा.मुखर्जी ने मातृभूमि के लिए अपने अमर बलिदान से इन पंक्तियों के मर्म को चरितार्थ कर दिया. लेकिन उनके प्रति सच्ची श्रद्धांजलि तब होगी जबकि “जहां हुए बलिदान मुखर्जी,वह कश्मीर हमारा है/जो कश्मीर हमारा है,वो सारे का सारा है”– दशकों से जारी यह उद्घोणा संपूर्ण साकार होगी. जब गिलगित-बालटिस्तान सहित पूरे पाक-अधिकृत कश्मीर पर राष्ट्रीय तिरंगा लहराने लगेगा,1990 के दशक में आतंकवादियों द्वारा कश्मीर-घाटी से निर्वासित हिंदुओं की पुनर्वापसी होगी और वहां से सभी प्रकार के अलगाववाद व आतंकवाद का समूल विनाश हो जाएगा. यह संतोष की बात है कि वर्तमान मोदी प्रशासन ने धारा 370 और उपबंध 35-ए को निरस्त कर डा.मुखर्जी के सपने के बड़े अंश को सत्य सिद्ध कर दिया है और शेष बचे उद्देश्यों की पूर्ति के लिए सधे कदमों के साथ आगे बढ़ रही है. हालिया ‘ऑपरेशन सिंदूर’ की सफलता हिंदुस्तान प्रशासन की दृढ़ता का परिचायक है.

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विनोद झा
संपादक नया विचार

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