Ganesh Shankar Vidyarthi: इस देश में स्वतंत्रता के आराधकों की लंबी परंपरा में गणेशशंकर विद्यार्थी का नाम अलग से रेखांकित किया जाता है, क्योंकि वह मतभेद या विचारभेद को स्वतंत्रता संघर्ष के आड़े आने देने के खिलाफ थे. वह कहते थे कि स्वतंत्रता का लक्ष्य पाने के लिए संघर्ष के औजार व हथियार परिस्थितियों के अनुसार अपनाये व बदले जा सकते हैं. कानपुर को कर्मभूमि बनाने और मजदूर नेता के रूप में सार्वजनिक जीवन शुरू करने के साथ वह लेखक/पत्रकार और ‘प्रताप’ (पहले साप्ताहिक, फिर दैनिक) के संपादक व संचालक बने, तो भी उन्होंने कांग्रेस या महात्मा गांधी के अहिंसक और क्रांतिकारियों के सशस्त्र क्रांतिकारी संघर्षों का एक जैसा समर्थन किया. उनका सारा जोर इस पर था कि स्वतंत्रता संघर्ष के जितने भी रास्ते हो सकते हों, उनमें किसी को भी वीरान न रहने दिया जाये और परिस्थिति के अनुसार हर तरह की रणनीतियां इस्तेमाल की जायें. उनके निकट अहिंसा भी एक रणनीति थी और सशस्त्र संघर्ष भी.
जब तक वह रहे, कानपुर स्थित ‘प्रताप’ कार्यालय क्रांतिकारियों द्वारा पहचान छिपाकर रहने, छद्म नाम से लिखने व काम करने का केंद्र बना रहा. ‘प्रताप’ ने महात्मा गांधी, कांग्रेस और किसानों के अहिंसक आंदोलनों को भरपूर प्रोत्साहन से भी मुंह नहीं मोड़ा. इससे चिढ़ी गोरी प्रशासन के दमन व उत्पीड़न के विरुद्ध विद्यार्थी जी ने जैसा निर्भय व दो टूक दृष्टिकोण अपनाया और बदले में अनेक प्रशासनी कोप झेले, उसकी दूसरी मिसाल दुर्लभ है. उस दौर में भागलपुर में स्वतंत्रता सेनानी बटुकदेव शर्मा को बढ़ती पुलिस सरगर्मी के बीच अपने पकड़े जाने का अंदेशा सताने लगा और एक शुभचिंतक के कहने पर उन्होंने गुप्त पत्र लिखकर विद्यार्थी जी से छिपने का ठौर मांगा, तो विद्यार्थी जी ने उन्हें ‘प्रताप’ कार्यालय के उस खास कमरे में छिपाया, जिसमें किसी को भी जाने की इजाजत नहीं थी. उन दिनों जो भी युवक स्वतंत्रता संघर्ष से जुड़ना चाहता था, विद्यार्थी जी उसकी मदद करते थे. वर्ष 1924 में जब भगत सिंह अपने परिजनों के शादी कर लेने के दबाव से नाराज हुए और क्रांतिकारी बनने के इरादे से घर छोड़कर विद्यार्थी जी के पास पहुंचे, तो उन्होंने उनसे कहा, ‘देखो लड़के, आजादी की चाहत ऐसी है, मानो कोई परवाना शमा पर फना हो जाना चाहता हो. जलती हुई शमा में एक बार दाखिल हो गये, तो यह उम्मीद मत रखना कि बाकियों के पास जाकर उन्हें भी शमा तक लेकर आऊंगा. एक बार जलने की ठान ली, तो वापसी का रास्ता बंद कर लेना ही ठीक है.’ अपना नाम बलवंत सिंह रखकर भगत सिंह ढाई वर्ष तक ‘प्रताप’ में काम करने लगे. वहीं उनकी बटुकेश्वर दत्त, चंद्रशेखर आजाद और बिजॉय कुमार सिन्हा जैसे क्रांतिकारियों से मुलाकात हुई.
जब 23 मार्च, 1931 को भगत सिंह के साथ सुखदेव व राजगुरु शहीद हुए, तो उद्वेलित कानपुरवासियों ने गोरी सत्ता के खिलाफ मोर्चा खोल दिया. कांग्रेस के बंद के आह्वान के बीच अंग्रेज कलेक्टर ने देखा कि स्थिति कर्फ्यू लगाने के बावजूद नियंत्रण में नहीं आ रही, तो उसने सीआइडी को सांप्रदायिक हिंसा भड़काने का निर्देश दे दिया. ‘प्रताप बाबा’ के नाम से प्रसिद्ध विद्यार्थी जी के लिए परिस्थितियों के समक्ष आत्मसमर्पण करके चुपचाप घर में बैठे रहना मुमकिन नहीं हुआ, तो अमन-चैन बहाली के बहुविध प्रयत्न करते हुए 25 मार्च की सुबह वह डिप्टी कलेक्टर के पास गये और सांप्रदायिक तत्वों पर अंकुश लगाने को कहा. इससे पहले ऐसे ही एक मौके पर सांप्रदायिकता भड़की, तो प्रशासन ने तेजी से कार्रवाई कर बात को बिगड़ने से बचा लिया था. लेकिन विद्यार्थी जी ने पाया कि इस बार उसके सुर बदले हुए हैं.
वहां से निराश होकर वह गिनती के सहयोगियों के साथ मारकाट रोकने और निर्दोषों को बचाने निकल पड़े. कई जगह वह ऐसा करने में सफल भी हुए, पर उसके बाद हालात की भयावहता को देखकर उनके सहयोगियों की हिम्मत भी पस्त हो गयी और वे उन्हें एकदम से अकेला कर गये. इसके बावजूद वह पूरी निर्भयता से दंगाइयों को समझाते-बुझाते और रोकते रहे. तभी उन पर प्राणांतक हमला हुआ. कुछ भी कर गुजरने पर आमादा दोतरफा भीड़ के बीच वह फंस गये, तो कुछ शुभचिंतक उनकी रक्षा के लिए उन्हें एक अपेक्षाकृत सुरक्षित गली में ले जाना चाह रहे थे. लेकिन वह यह कहते हुए दोनों तरफ की भीड़ को समझाने-बुझाने में लगे रहे कि अपनी जान बचाने के लिए कायरों की तरह भागना क्या, एक न एक दिन तो सबको मर ही जाना है. इसी के बाद एक तरफ की भीड़ उन पर हमलावर हो उठी और उन पर होने वाले प्रहारों की गिनती ही नहीं रह गयी. कई दिनों बाद दंगा थमा, तो उनका पार्थिव शरीर एक अस्पताल में लाशों के ढेर में मिला. उनके खादी के कपड़ों से ही उन्हें पहचाना जा सका था.
(ये लेखक के निजी विचार हैं.)
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