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हमारी मजबूत अर्थव्यवस्था का दूसरा पक्ष

Indian Economy : हिंदुस्तान में आइटी सेवाओं के क्षेत्र का प्रदर्शन अब तक बेहद शानदार रहा है. इसने नये इंजीनियरों को बेहतरीन पेशेवरों में बदला है, दुनियाभर के अनुबंध हासिल किये हैं और संभावनाओं को अपने हक में भुनाया है. दूसरी तरफ एसएमइ (स्मॉल एंड मीडियम इंटरप्राइजेज) क्षेत्र हिंदुस्तानीय वित्तीय स्थिति का खामोश मेरुदंड रहा है. अगर आइटी सेक्टर की पहचान कुछेक कंपनियों और दसियों लाख कर्मचारियों के तौर पर है, तो एसएमइ क्षेत्र की पहचान लाखों फर्म, लेकिन कम कामगार के रूप में है. ये दोनों हिंदुस्तान की आर्थिक उपलब्धि को अलग-अलग तरह से पेश करते हैं.

हिंदुस्तान को विश्व की चौथी सबसे बड़ी वित्तीय स्थिति बनाने में, जो निश्चय की गर्व की बात है, इन दोनों क्षेत्रों का समान योगदान है. लेकिन हिंदुस्तान की गर्वित करने वाली कहानी में एक पेच है. दोनों ही क्षेत्रों में हो रही छंटनी के कारण यह कहानी अब कम सुंदर है, बल्कि कुछ अर्थों में तो बदसूरत भी है. मसलन, आइटी सेक्टर में, जहां श्रमबल को कम किया जा रहा है, विनियामकों पर जबरन इस्तीफा लेने, धमकियां देने और तय प्रक्रिया का पालन न करने के आरोप लग रहे हैं. बेशक उन पर लगाये जा रहे सारे आरोप सही नहीं हैं, लेकिन ये आरोप पूरी तरह निराधार भी नहीं हैं. इसका जिस गति से विरोध हो रहा है, वह भी अप्रत्याशित है.

यह हिंदुस्तान की कहानी का एक पक्ष है, जिसमें लोग बड़े पैमाने पर हो रही छंटनी के खिलाफ खड़े हैं. लेकिन कहानी का एक दूसरा पक्ष भी है, जिसके बारे में लोग कम जानते हैं. वह यह कि बहुतेरे कामगार काम के भारी बोझ से छुटकारा पाकर घर जाना चाहते हैं, लेकिन उन्हें मुक्ति नहीं मिलती. पिछले सप्ताह अपने नियोक्ता के शोषण से परेशान झारखंड के पूर्वी सिंहभूम जिले के तेरह प्रवासी कामगार आखिरकार तब घर जा पाये, जब राज्य प्रशासन ने हस्तक्षेप किया. पीटीआइ की समाचार थी कि गुजरात के मोरबी जिले की एक कंपनी में काम कर रहे उन लोगों ने जब काम छोड़ने का फैसला किया, तब कंपनी ने उन्हें भोजन और दूसरी सुविधाओं से तो वंचित किया ही, उन्हें वेतन देने से भी इनकार कर दिया था.

झारखंड प्रशासन के श्रम विभाग के हस्तक्षेप करने के बाद न सिर्फ उन्हें घर जाने दिया गया, बल्कि उन तेरह कामगारों के बकाया 68,000 रुपये भी कंपनी ने दिये. बताया जाता है कि वह कंपनी अब गुजरात प्रशासन की जांच के रडार में है. यह पहली बार नहीं है, जब प्रवासी कामगारों, खासकर अपने घर से बहुत दूर काम करने के लिए गये आदिवासियों के साथ बंधुआ मजदूरों जैसा व्यवहार किया गया. ऐसी अनेक समाचारें हैं कि छोटी कंपनियां किस तरह दूर से आये कामगारों का शोषण करती हैं, उन्हें कम वेतन देती हैं, कामगारों के स्वास्थ्य से समझौता करती हैं, यहां तक कि उनकी इच्छा-अनिच्छा की भी कोई परवाह नहीं करती हैं.

आइटी सेक्टर में जबरन लिया जाता इस्तीफा या छोटी दुकानों और फैक्ट्रियों में जबरन काम करवाना दो वास्तविकताएं हैं, जिनसे हिंदुस्तान के आर्थिक विकास की एक कहानी बनती है. हालांकि हिंदुस्तान के आर्थिक विकास में इन दोनों का योगदान है, लेकिन इससे न सिर्फ काम करने के स्तर पर सवाल उठते हैं, बल्कि निजी क्षेत्र के प्रति हिंदुस्तान में परंपरागत ढंग से व्याप्त संदेह भी मजबूत होता है. वर्ष 2017 के आर्थिक सर्वेक्षण में इसे ‘स्पष्टतया बाजार विरोधी सोच’ बताया गया था. इस बाजार विरोधी भावना में निजी क्षेत्र के प्रति भरोसा कम होता है और निजीकरण व उदारीकरण में भी नेतृत्वक सीमा तय कर दी जाती है. क्रोनी कैपिटलिज्म (साठगांठ वाली आर्थिक व्यवस्था) और कुछ जगहों को वरीयता देने व कुछ को उपेक्षित रखने की सोच से निजी पूंजी पर भरोसा और कम होता है.

इससे बड़ी आबादी में यह सोच पनपती है कि अपने शेयरधारकों को वरीयता देने वाला निजी क्षेत्र आम लोगों और समाज का भला नहीं कर सकता. जब कंपनियां देखती हैं कि वे श्रम कानूनों का उल्लंघन कर, अपने कर्मचारियों की गरिमा से खिलवाड़ कर और अपने श्रमबल की परवाह किये बिना भी बच सकती हैं, तो उल्लंघन के मामले बढ़ते जाते हैं. इसका समाधान यह है कि गैरकानूनी गतिविधियों से सख्ती से निपटा जाये, जिन कंपनियों को अपने कामगारों की परवाह नहीं, उन पर भारी आर्थिक दंड लगाया जाये और यह संदेश दिया जाये कि नियमों का उल्लंघन करने वालों से सख्ती से निपटा जायेगा. यह बाजार के हित में सबसे बड़ा सुधार होगा, जिसकी हिंदुस्तान को सख्त जरूरत है. ऐसे कदमों से नागरिकों में यह संदेश जायेगा कि निजी क्षेत्र भले ही संसाधनों के मामले में बेहद ताकतवर हों, पर उनके साथ आम नागरिकों जैसा बर्ताव किया जायेगा.

अगर कर्मचारियों को निकाले जाने को इस्तीफा बताया जाये, जैसा कि आइटी सेक्टर में हुई छंटनी के मामले में सामने आया है, तो यह कानून का गंभीर उल्लंघन है. ऐसे ही, दूसरे राज्यों से काम करने के लिए आये लोगों को बंधुआ मजदूरों की तरह काम कराया जाये, जैसा कि गुजरात में सामने आया है, तो ऐसी कंपनी पर न सिर्फ हमेशा के लिए प्रतिबंध लगा दिया जाना चाहिए, बल्कि जिम्मेदार लोगों को जेल में डाल दिया जाना चाहिए. लेकिन आज स्थिति यह हो गयी है कि उदारीकरण के नाम पर श्रम अधिकारों का लगातार हनन किया गया है और कामगारों को ठेके पर लेने की व्यवस्था का निरंतर अवमूल्यन हुआ है.

अंतरराष्ट्रीय आर्थिक संबंधों पर इंडियन काउंसिल फॉर रिसर्च के एक अध्ययन में बताया गया है, ‘कंपनियां रणनीति के तहत ठेके में कामगारों की नियुक्तियां कर रही हैं, ताकि यूनियनों द्वारा सौदेबाजी करने और मजदूरी बढ़ाने की मांगों पर अंकुश लगाया जा सके.’ आइटी सेक्टर की बात करें, तो यह आदत ही बन गयी है कि सॉफ्टवेयर इंजीनियरों से आठ घंटे से अधिक काम कराया जाता है, लेकिन उन्हें वेतन आठ घंटे का ही दिया जाता है. यह व्यवस्था क्रूर है और गैरकानूनी भी, लेकिन यह सामान्य परिपाटी बन गयी है. होना तो यह चाहिए कि आठ घंटे से कम काम करने वालों की गणना होने की तरह आठ घंटे से अधिक काम करने वालों की भी गणना की जाये.

यह सब कहने का मतलब यह कतई नहीं है कि कंपनियां कर्मचारियों को न निकालें. दिक्कत उस कार्य संस्कृति से है, जिसके तहत कंपनियों के प्रबंधन में सीइओ की भूमिका महत्वपूर्ण हो रही है, जबकि कर्मचारियों की जायज मांगों और हितों से जुड़े यूनियनों की अनदेखी की जा रही है. जबकि सक्रिय और जीवंत यूनियनों के बगैर कारोबार पहले की तुलना में कम जीवंत और सुरक्षित होगा.
(ये लेखक के निजी विचार हैं.)

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विनोद झा
संपादक नया विचार

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