Pakistan Army: हिंदुस्तान के साथ जारी तनाव के बाद अमेरिका के हस्तक्षेप पर पाकिस्तान की प्रशासन ने युद्धविराम करने पर अपनी सहमति जता दी. लेकिन, वहां पर सेना प्रशासन की बात मानने को तैयार नहीं है. बरसों से दुनिया भर के लोगों में हमेशा यह सवाल पैदा होता रहता है कि आखिर, ऐसी क्या बात है, जो पाकिस्तानी सेना हमेशा आउट ऑफ कंट्रोल रहती है और अपने हिसाब से वहां पर कठपुतली प्रशासन बनाती रहती है? जब चाहती है और जैसा चाहती है, अपने हिसाब से प्रशासन बनाती और गिराती है? आइए, आज हम इसकी पूरी सच्चाई जानने की कोशिश करते हैं. पाकिस्तान की प्रशासन और सेना के संबंध गड़बड़ पाकिस्तान में प्रशासन और सेना के बीच असंतुलित संबंध एक जटिल और ऐतिहासिक मुद्दा है, जो 1947 में देश की स्थापना के साथ शुरू हुआ. सेना ने न केवल सुरक्षा बल के रूप में, बल्कि नेतृत्वक और आर्थिक शक्ति के केंद्र के रूप में भी अपनी भूमिका को मजबूत किया है. पाकिस्तान में प्रशासन और सेना के बीच संबंध कभी अच्छे नहीं रहे हैं. सेना हमेशा प्रशासन, सत्ता और नेतृत्व पर हावी रही है. 1947-1958: शुरुआती अस्थिरता और सत्ता में सेना का उदय पाकिस्तान की स्थापना हिंदुस्तान के विभाजन के बाद हुई, जिसके साथ आर्थिक, सामाजिक और क्षेत्रीय चुनौतियां आईं. कश्मीर विवाद के कारण 1947-48 में हिंदुस्तान के साथ पहला युद्ध हुआ, जिसने सेना को राष्ट्रीय सुरक्षा के रक्षक के रूप में स्थापित किया. शुरुआती वर्षों में असैनिक प्रशासनें कमजोर थीं, क्योंकि नेतृत्वक दलों में एकता और नेतृत्व की कमी थी. 1951 में लियाकत अली खान की हत्या के बाद नेतृत्वक अस्थिरता और बढ़ी. इस दौरान, सेना ने धीरे-धीरे खुद को एक संगठित और स्थिर संस्था के रूप में प्रस्तुत किया. 1958 में जनरल अयूब खान ने पहला सैन्य तख्तापलट किया, जिसने लोकतांत्रिक प्रक्रिया को ठप कर दिया और सेना को नेतृत्व में प्रमुख शक्ति बना दिया. यह तख्तापलट कमजोर असैनिक नेतृत्व और भ्रष्टाचार के आरोपों का परिणाम था, जिसे सेना ने अपने हस्तक्षेप का औचित्य साबित करने के लिए इस्तेमाल किया. 1958-1988: सैन्य शासन का युग अयूब खान (1958-1969) के शासन ने सेना को आर्थिक और नेतृत्वक शक्ति दी. सेना ने बड़े पैमाने पर व्यापार और उद्योगों में निवेश किया, जिससे उसकी आर्थिक ताकत बढ़ी. 1965 के हिंदुस्तान-पाकिस्तान युद्ध में सेना की भूमिका ने उसकी छवि को और मजबूत किया. हालांकि, युद्ध का परिणाम अनिर्णायक रहा. 1971 का बांग्लादेश मुक्ति युद्ध पाकिस्तानी सेना के लिए एक बड़ा झटका था, जिसमें पूर्वी पाकिस्तान स्वतंत्र बांग्लादेश बन गया. इस हार ने सेना की विश्वसनीयता को प्रभावित किया, लेकिन उसने जल्द ही जनरल जिया-उल-हक (1977-1988) के नेतृत्व में सत्ता पर फिर से कब्जा कर लिया. जिया ने इस्लामीकरण को बढ़ावा देकर और सोवियत-अफगान युद्ध में अमेरिकी समर्थन प्राप्त करके सेना की स्थिति को और सुदृढ़ किया. इस अवधि में, सेना ने ISI (इंटर-सर्विसेज इंटेलिजेंस) के माध्यम से विदेश नीति और आंतरिक सुरक्षा पर नियंत्रण स्थापित किया. असैनिक प्रशासनें इस दौरान या तो कठपुतली थीं या अस्तित्वहीन. 1988-1999: लोकतंत्र की कोशिशें और सेना का दबदबा जिया-उल-हक की मौत के बाद बेनजीर भुट्टो और नवाज शरीफ जैसे नेताओं ने लोकतांत्रिक प्रशासनें बनाईं, लेकिन सेना का प्रभाव कम नहीं हुआ. 1990 के दशक में सेना ने कश्मीर में छद्म युद्ध और आतंकवादी समूहों को समर्थन देकर हिंदुस्तान के खिलाफ अपनी रणनीति को तेज किया. 1999 में जनरल परवेज मुशर्रफ ने तख्तापलट कर नवाज शरीफ की सत्ता हथिया ली, क्योंकि शरीफ ने सेना प्रमुख को बदलने की कोशिश की थी. इस घटना ने दिखाया कि सेना असैनिक प्रशासनों को अपनी मर्जी के खिलाफ फैसले लेने की इजाजत नहीं देती. 2008-2025: छद्म लोकतंत्र और सेना की पकड़ 2008 में लोकतंत्र की बहाली के बाद सेना ने प्रत्यक्ष शासन छोड़ दिया, लेकिन अप्रत्यक्ष रूप से नीतियों को प्रभावित किया. जनरल राहील शरीफ और बाद में जनरल बाजवा ने विदेश नीति (विशेष रूप से हिंदुस्तान और अफगानिस्तान के साथ संबंधों) पर नियंत्रण रखा. 2018 में इमरान खान की प्रशासन को सेना का समर्थन प्राप्त था, लेकिन 2022 में उनके हटने के बाद सेना ने शहबाज शरीफ की प्रशासन पर दबाव बढ़ा दिया. 2025 में पहलगाम हमले और ऑपरेशन सिंदूर के बाद सेना ने प्रशासन को हिंदुस्तान के खिलाफ आक्रामक रुख अपनाने के लिए मजबूर किया, जिससे यह स्पष्ट हुआ कि प्रमुख नीतिगत फैसले सेना ही लेती है. हाल के 2024 के चुनावों में भी सेना पर हस्तक्षेप के आरोप लगे. तनाव के प्रमुख कारण ऐतिहासिक प्रभुत्व: सेना ने शुरुआती अस्थिरता का फायदा उठाकर सत्ता पर कब्जा किया और कभी भी पूर्ण असैनिक नियंत्रण स्वीकार नहीं किया. आर्थिक शक्ति: सेना का बड़े पैमाने पर व्यापार, रियल एस्टेट और उद्योगों में नियंत्रण है, जो उसे आर्थिक रूप से स्वतंत्र बनाता है. विदेश नीति पर नियंत्रण: हिंदुस्तान, अमेरिका और चीन के साथ संबंधों में सेना का दबदबा है, जिससे प्रशासन की भूमिका सीमित हो जाती है. आतंकवाद और सुरक्षा: सेना ने आतंकवाद विरोधी अभियानों और कश्मीर नीति के जरिए अपनी जरूरत को साबित किया है. कमजोर लोकतंत्र: बार-बार तख्तापलट और भ्रष्टाचार ने असैनिक प्रशासनों की विश्वसनीयता को कमजोर किया. इसे भी पढ़ें: India Pakistan Ceasefire: जयराम रमेश ने की संसद के विशेष सत्र और सर्वदलीय बैठक की मांग पाकिस्तान में सेना-प्रशासन के तनाव का कारण पाकिस्तान में सेना और प्रशासन के बीच तनाव का मूल कारण सेना की ऐतिहासिक, आर्थिक और नेतृत्वक ताकत है, जो कमजोर लोकतांत्रिक संस्थानों और बार-बार के सैन्य हस्तक्षेप से और मजबूत हुई. 1947 से 2025 तक सेना ने हर प्रमुख संकट का इस्तेमाल अपनी स्थिति को मजबूत करने के लिए किया. जब तक असैनिक संस्थाएँ मजबूत नहीं होंगी और सेना की आर्थिक शक्ति सीमित नहीं होगी, यह असंतुलन बना रहेगा. इसे भी पढ़ें: 1971 के बाद हिंदुस्तानीय सेना ने पाकिस्तान को सिखाया सबसे बड़ा सबक, ऑपरेशन सिंदूर की दिखाई ताकत The post पाकिस्तानी सेना क्यों रहती है आउट ऑफ कंट्रोल, कठपुतली प्रशासन बनाने में माहिर appeared first on Naya Vichar.