-इंदर सिंह नामधारी-
(झारखंड विधानसभा के पहले स्पीकर)
मैंने आपातकाल का वह भयावह दौर झेला है. उस समय ऐसा लगता था कि अब आगे क्या होगा? ? क्या कभी हम लोग जेल से बाहर निकल पायेंगे भी या नहीं? उस अनिश्चितता, भय और निराशा के बीच एक बात मन में लगातार बनी रहती थी कि हम लोग देश की लोकतांत्रिक व्यवस्था को बचाने की लड़ाई लड़ रहे हैं. हम सीधे तानाशाही सत्ता के खिलाफ खड़े थे. उस दौर में कोई अपील नहीं सुनी जाती थी, न कोई दलील, न कोई वकील. रातों-रात नेताओं को गिरफ्तार कर जेल में डाल दिया जाता था. अखबारों का मुंह सेंसरशिप के नाम पर बंद कर दिया गया था. अन्याय के खिलाफ बोलने की कोई जगह नहीं बची थी. मुझे भी गिरफ्तार करने के लिए पुलिस लगातार छापेमारी कर रही थी. जब पुलिस मेरे मेदिनीनगर (तब डाल्टनगंज) स्थित घर पहुंची, तो मुझे पहले ही भनक लग गयी. मैं वेश बदलकर वहां से निकल गया. गिरफ्तारी के डर से मेदिनीनगर छोड़ दिया और कोलकाता, दिल्ली, हरियाणा, चंडीगढ़ जैसे स्थानों पर अपने रिश्तेदारों के घरों में छिपकर रहने लगा.
17 महीने बिताये डाल्टेनगंज जेल में
जब दिल्ली में था, तो जनसंघ के नेता कैलाशपति मिश्र से मिला. जब लगा कि दिल्ली भी अब सुरक्षित नहीं है, तो मिश्रा जी के साथ कोलकाता चला गया. दो-तीन महीने बाद कोलकाता से छिपते-छिपाते किसी तरह मेदिनीनगर लौटा. सितंबर का महीना था. एक शाम मैं अपने भतीजे के साथ फुटबॉल स्पोर्ट्सने स्कूल के मैदान चला गया, तभी किसी ने मेरी मौजूदगी की समाचार पुलिस को दे दी. थोड़ी ही देर में पुलिस वहां पहुंच गयी और चारों तरफ से घेरकर मुझे गिरफ्तार कर लिया. इसके बाद मुझे डाल्टेनगंज जेल भेज दिया गया. उस समय वहां पलामू ही नहीं, राज्य के अन्य जिलों के भी आंदोलनकारियों को बंदी बनाकर रखा गया था. मैं 17 महीने जेल में रहा. इमरजेंसी के दौरान इंदिरा गांधी की प्रशासन ने हमें मीसा के तहत गिरफ्तार किया था. यह एक अंधा कानून था. न वकील, न दलील, न सुनवाई
परिजनों के दबाव के बाद भी मैंने बीस सूत्री कार्यक्रम का समर्थन नहीं किया
तब जेल में अनिश्चितकाल के लिए रहने की अफवाहें परेशान करती थीं. इस डर से कई आंदोलनकारी उस समय जेल से निकलने के लिए प्रशासन के बीस सूत्री कार्यक्रम का समर्थन करने लगे थे. मेरे परिजन भी मुझे समझाने लगे कि जैसे बाकी लोग बाहर आ रहे हैं, मैं भी समर्थन कर बाहर आ जाऊं. वे मेरे आध्यात्मिक गुरु के पास भी पहुंचे. गुरु जी खुद मुझसे जेल में मिलने आये, तो मुझ पर बीस सूत्री कार्यक्रम का समर्थन करने का फिर दबाव बना. समर्थन करने के बाद 24 घंटे के भीतर जेल से बाहर आने की गुंजाइश थी. लेकिन, मैंने साफ इनकार कर दिया. मैंने कहा कि पार्टी के साथ विश्वासघात कर बाहर निकलने से बेहतर है कि मैं जेल में ही रहूं.
हमें मदद करने का खामियाजा भुगतना पड़ा जेल अधीक्षक को
हालांकि, उस दौर में सभी अधिकारी दमनकारी नहीं थे. कई अधिकारियों ने मानवीयता का परिचय दिया. हमारे तत्कालीन जेल अधीक्षक बीएल दास जेपी के प्रबल समर्थक थे. वे हमारी छोटी-छोटी मांगों का भी ध्यान रखते थे. उन्होंने मीसा बंदियों के अनुरोध पर जेल में खीर और मालपुआ तक की व्यवस्था कर दी थी. लेकिन, इसका खामियाजा भी उन्हें भुगतना पड़ा. सेवा के अंतिम दिनों में प्रशासन ने उन्हें निलंबित कर दिया. हालांकि, 1977 में जब इमरजेंसी हटी, तो नयी प्रशासन ने उनका निलंबन रद्द कर दिया.
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