MGNREGA: इस वर्ष संसद द्वारा पारित एक शानदार वैधानिक अधिकार के बीस साल पूरे हो रहे हैं. यह काम या रोजगार का अधिकार है. यह 23 अगस्त, 2005 को संसद से पारित होने के बाद कानून बना, जिसे महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम नाम दिया गया. इसके तरह ग्रामीण हिंदुस्तान के परिवारों के एक कौशलविहीन सदस्य को साल में सौ दिन काम देने का प्रावधान है. इसका एक तिहाई स्त्रीओं के लिए आरक्षित किया गया है. यह रोजगार आवेदक के घर से पांच किलोमीटर तक की परिधि में दिये जाने का प्रावधान है. यह दुनिया का सबसे बड़ा सामाजिक सुरक्षा और सार्वजनिक रोजगार कार्यक्रम है. शुरुआती आलोचनाओं के बावजूद विश्व बैंक जैसी संस्था ने इसे शानदार विकास कार्य बताया है.
विकसित देशों में एक बेरोजगार स्त्री या पुरुष रोजगार दफ्तर में अपना पंजीयन कराता है, और रोजगार तलाशने के दौरान उसे बेरोजगारी भत्ता मिलता है. हिंदुस्तान में ऐसी व्यवस्था नहीं है, क्योंकि श्रम बाजार संगठित नहीं है. इसकी जगह हमारे यहां मनरेगा जैसी योजना है, जो ग्रामीण आबादी को कवर करती है. इसके तहत काम की मांग सूखे और अकाल के दौरान बहुत बढ़ जाती है. इसके तहत काम की मांग तब घट जाती है, जब श्रम बाजार की स्थिति सुधरती है और कृषि क्षेत्र में श्रम की मांग बढ़ जाती है. इस योजना के तहत रोजगार की मांग घटना अच्छी निशानी है. अगर यह योजना अनावश्यक हो जाये, तो उसका अर्थ होगा कि ग्रामीण हिंदुस्तान में रोजगार की कमी नहीं रही. पर फिलहाल ये दोनों ही स्थितियां नहीं हैं. कोविड के दौरान मनरेगा में काम की मांग बेतहाशा बढ़ी. वर्ष 2020-21 में इस मद में प्रशासनी खर्च उसके बजटीय आवंटन से दोगुना बढ़कर करीब 1.2 लाख करोड़ हो गया था, और लोगों को सालाना 300 दिन तक का रोजगार दिया गया था. मनरेगा आर्थिक परेशानियों के समय रोजगार देता है. इसमें दी जाने वाली मजदूरी न्यूनतम मजदूरी से जुड़ी है, यानी यह गरीबी मिटाने की योजना की तरह काम करता है. चूंकि इसमें स्त्रीओं की भागीदारी अधिक है, लिहाजा यह स्त्री सशक्तिकरण को अंजाम देने के साथ उसे स्वायत्तता भी देता है. अनेक जगह कार्यस्थलों पर क्रैच की सुविधा है, जिससे कम उम्र की विवाहिताओं के लिए भी काम करना आसान है. इसमें सिंचाई योजनाओं के अलावा तालाब और नहर खोदने, ग्रामीण सड़क बनाने और वनीकरण जैसे काम किये जाते हैं. कुछ राज्यों में मनरेगा के तहत ग्रामीण आवास के अलावा निजी आवास और दूसरे निर्माण कार्य भी कराये जाते हैं. ग्रामीण इलाकों में मनरेगा से रोजगार के लिए शहरों की तरफ जाने का दबाव कम हो जाता है. कोविड के दौरान मनरेगा के आकर्षण से बड़ी संख्या में शहरी मजदूरों का पलायन गांवों की ओर हुआ था. चूंकि इसमें काम के अधिकार का कानून बना हुआ है, ऐसे में जरूरतमंदों के लिए काम पाना भी सहज है.
श्रमिकों के भुगतान को आधार से जोड़ने का लाभ हुआ है कि उनकी मजदूरी सीधे उनके बैंक खातों में जाती है. इस योजना के नकारात्मक पक्ष क्या हैं? चूंकि इसके जरिये श्रम बाजार में हस्तक्षेप किया गया है तथा इसमें वैकल्पिक रोजगार और वाजिब मजदूरी के प्रावधान हैं, लिहाजा इससे वे बड़े किसान नाखुश हैं, जिन्हें मजदूरों की जरूरत पड़ती है. उनकी शिकायत है कि मजदूर अब कम मिलते हैं या मनरेगा ने श्रमिकों को आलसी बना दिया है. चूंकि मनरेगा के तहत न्यूनतम मजदूरी दिये जाने का प्रावधान है, ऐसे में, अपने यहां काम कराने वाले बड़े किसानों को भी मजबूरन श्रमिकों को न्यूनतम मजदूरी देनी पड़ती है. भ्रष्टाचार पर प्रभावी नियंत्रण और बायोमीट्रिक व्यवस्था के बावजूद मनरेगा में श्रमिकों के फर्जी विवरण पेश कर उनकी मजदूरी हड़प लेने की शिकायतें हैं. ग्रामीणों तथा एनजीओ द्वारा सोशल ऑडिट कराये जाने से ही इस फर्जीवाड़े पर रोक लग सकती है. तीसरी मुश्किल बायोमीट्रिक जरूरत से जुड़ी है. जब बिजली न रहने या मशीन की गड़बड़ी से श्रमिकों के अंगूठे के निशान या आंखों की रेटिना का मिलान नहीं हो पाता, तब मजदूरी का भुगतान रुक जाता है. अगर इस तरह की गड़बड़ी की दर दो फीसदी हो, तो उसका नतीजा एक या दो करोड़ श्रमिकों की मजदूरी रुकने के रूप में सामने आता है. यह एक गंभीर गड़बड़ी है, जिसका त्वरित हल जरूरी है. चौथी गड़बड़ी, जो हाल के दौर में ज्यादा दिखाई पड़ी है, वह है मजदूरी के भुगतान में विलंब. चूंकि मनरेगा के तहत काम करने वाले लोग मजदूर हैं, ऐसे में, मजदूरी के भुगतान में एक या दो सप्ताह का विलंब उनके लिए बहुत मुश्किल भरा होता है. पर एक हालिया आंकड़ा बताता है कि कुल 975 करोड़ रुपये की मजदूरी के भुगतान में देरी हुई है.
मनरेगा में ऐसी कई चीजें हैं, जिनमें बदलाव लाकर इसे सुधारा जा सकता है. यह यूनिवर्सल बेसिक इनकम (यूबीआइ) से, जो शुद्ध रूप से एक धन स्थानांतरण योजना है और जिसे 2017 के आर्थिक सर्वे में एक विचार के रूप में पेश किया था, भिन्न है. मनरेगा रोजगार के लिए खुद सामने आये लोगों की एक योजना है, जिसमें कठिन शारीरिक परिश्रम की जरूरत पड़ती है. अगर प्रणाली ठीक तरह से काम करे, तो यही खासियत मनरेगा के फर्जी दावों को खारिज करने के लिए काफी है. इसकी सफलता का प्रमाण यही है कि शहरी बेरोजगारों के लिए भी ऐसी योजना की मांग की जाती रही है और कई राज्य प्रशासनों ने इस दिशा में सोचा भी.
मनरेगा दरअसल लोक निर्माण योजनाओं, प्रयोगों और बहुद्देश्यीय परियोजनाओं का मिला-जुला रूप है. महाराष्ट्र में कई साल के भीषण सूखे की पृष्ठभूमि में 1973 में रोजगार गारंटी योजना की शुरुआत हुई थी. वह राज्य प्रशासन द्वारा वित्तपोषित योजना थी, जिसके लिए शहरों के नौकरीपेशा लोगों पर आजीविका कर लगाया गया था. मनरेगा जैसे कानून के पीछे उस सफल योजना की प्रेरणा थी. जब तक देश में बेरोजगार लोगों के पंजीयन, उनकी शिनाख्त और उन्हें भत्ता देने की शुरुआत नहीं हो जाती, तब तक इस योजना की उपयोगिता बनी रहेगी. हालांकि मुफ्त राशन तथा पीएम किसान व लाड़की बहिन जैसी डायरेक्ट बेनेफिट स्कीम जैसी योजनाओं के कारण मनरेगा में काम की मांग में कमी आयेगी. पर भूलना नहीं चाहिए कि इस योजना के कारण ग्रामीण हिंदुस्तान को रोजगार और निर्माण का दोहरा लाभ मिलता है. स्त्री सशक्तिकरण में भी यह अपनी भूमिका निभाता है. इसकी बीसवीं वर्षगांठ पर उम्मीद करनी चाहिए कि आने वाले वर्षों में यह और प्रभावी साबित होगा. यह योजना पूरी दुनिया के लिए रोल मॉडल है.
(ये लेखक के निजी विचार हैं.)
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