VARANASI NEWS: काशी के अदभुत घाटों पर एक अनोखी श्रद्धांजलि लोगों के बीच चर्चा का विषय बन गई है. एक बांग्लादेशी स्त्री ने अपने 27 साल पहले मरी बेटी का पिंडदान कर हिन्दू धर्म अपना लिया. स्त्री के अनुसार, उनकी छोटी पुत्री जिंदगी के आखिरी दिनों में रोज उनसे सवाल करती थी, “मुक्ति कब दोगी?” यह सवाल स्त्री के दिल को छू गया और आज उसने बेटी की आत्मा को शांति प्रदान करने के लिए हिन्दू रीतिरिवाज के अनुसार पिंडदान किया.
बेटी की याद उसे दिन-रात सताती थी
स्त्री ने जानकारी देते हुए बताया है कि जब भी वह अपने खोए हुए लाड़ले की याद में उदास हो जाती थीं, तो बेटी की यादें उसे दिन-रात सताने लगती थीं. 27 साल पूर्व अचानक घटित दुखद घटना ने जीवनभर मुझे एक गहरा दर्द और अधूरापन दे दिया, जिससे निकलना मेरे लिए बेहद मुश्किल सा हो गया था. उसकी पुत्री की मासूम पुकार “मुक्ति कब दोगी?” आज भी उसके दिल के कोने में गूंजा करती है. यह वाक्य केवल एक प्रश्न ही नहीं रहा, बल्कि उस अपूर्ण आशा और अनकहे दर्द का संकेत बन गया था.
काशी में किया पिंडदान
इस दर्द भरी याद को सुकून देने के लिए स्त्री ने काशी जाने का ठान लिया, वह शहर जहाँ हिन्दू धर्म के रीतिरिवाज के अनुसार पिंडदान की प्रक्रिया पूरी की जाती है. काशी में पिंडदान करना एक ऐसा संस्कार है, जो मृत आत्मा को मोक्ष दिलाने के लिए वहां किया जाता है. स्त्री ने यह बताया कि इस धार्मिक क्रिया के संपन्न होने से उसे अपने पुत्री की आत्मा की मुक्ति की आशा मिली और साथ ही उसकी आत्मा को शांति भी मिली.
हिंदू धर्म में परिवर्तन करने की प्रेरणा मिली
स्त्री को पिंडदान के दौरान हिन्दू परंपरा के अनवरत संस्कारों और धार्मिकता को गहराई से महसूस किया. पुत्री की अपूर्ण पुकार और उसके बिना रह जाने के बाद उस दर्द ने उसे एक नई राह पर अग्रसर कर दिया था. उसने बताया कि इस धर्म के आस्थावान कर्मों और श्रद्धा से उसे अपने दुःख में कुछ राहत देने में मदद मिली. इस धर्म परिवर्तन के पीछे उसका कहना था कि हिन्दू परंपरा में आत्मा की शांति और मोक्ष पाने की प्रथा निहायत महत्वपूर्ण है.
हिन्दू समुदाय की प्रतिक्रियाएँ
काशी के रहने वाले धार्मिक गुरुओं और स्थानीय हिंदू समाज ने इस कदम का स्वागत किया है.लोगों का कहना है कि चाहे किसी भी संस्कृति या राष्ट्रीयता का व्यक्ति क्यों न हो, मन में रखी सच्ची श्रद्धा और प्यार से किया गया कर्म किसी भी धर्म की सीमाओं को लांग सकता है.स्त्री ने अपनी खुद की पीड़ा और अधूरी प्रेम की कहानी को एक सार्वजनिक श्रद्धांजलि में बदल दिया है, जिससे बांग्लादेश और हिंदुस्तान की सांस्कृतिक और धार्मिक साझा विरासत का एक अनूठा उदाहरण सामने निकल कर आया है.
मानवीय संवेदनाओं का अद्भुत संगम
इस स्त्री की कहानी न केवल एक माँ के अधूरी प्रेम की गाथा है, बल्कि धर्म और संस्कृति की सीमाओं को लांघते हुए मानवीय संवेदनाओं का अद्भुत संगम भी प्रस्तुत करती है. पुत्री की “मुक्ति कब दोगी?” की आवाज आज भी उसकी यादों में जीवित है, और उस दर्द को समझते हुए यह श्रद्धांजलि यह बताती है कि कैसे किसी भी गहरे अधूरे आशा को पूरा करने का एक रास्ता खोजा जा सकता है. यह कदम उन सभी माता-पिताओं के लिए एक प्रेरणा का स्रोत है जो अपनों के लिए मुक्ति और शांति की कामना करते हैं.
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