Last Rites for Women: जीव 84 लाख योनियों में भटकने के बाद जब मनुष्य जन्म पाता है, तो यह जीवन उसे ईश्वर की कृपा से मिलता है. जन्म लेने से पूर्व वह भगवान से वादा करता है कि धरती पर आकर वह उनकी भक्ति करेगा, पूजा-पाठ में लीन रहेगा और मोक्ष का मार्ग अपनाएगा. लेकिन जैसे-जैसे वह संसार में बड़ा होता है, वैसे-वैसे भगवान की भक्ति को भूलता जाता है. सांसारिक मोह-माया, लोभ और इच्छाएं उसे घेर लेती हैं, और वह ईश्वर की साधना से दूर हो जाता है. यही मानव जीवन की सबसे बड़ी विडंबना है.
प्रक्रिया में मृतक को अग्नि देने की परंपरा को ‘मुखाग्नि’ कहते हैं. परंपरागत मान्यता के अनुसार, मुखाग्नि देने का अधिकार सबसे पहले पुत्र को दिया गया है, विशेष रूप से ज्येष्ठ पुत्र को. लेकिन जब किसी स्त्री का निधन होता है, तो यह सवाल उठता है कि उसे मुखाग्नि कौन दे सकता है – पति, बेटा या कोई अन्य परिजन?
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धार्मिक शास्त्रों में कही गई ये बात
धार्मिक शास्त्रों में यह कहीं स्पष्ट नहीं कहा गया है कि स्त्री को केवल पुत्र ही मुखाग्नि दे सकता है. हां, समाज में लंबे समय तक यह परंपरा जरूर रही है कि मुखाग्नि पुरुष सदस्य ही दें. लेकिन जैसे-जैसे समय और सोच में बदलाव आया, इस परंपरा में भी लचीलापन देखने को मिला है.
यदि स्त्री के पुत्र मौजूद हों, तो मुखाग्नि का दायित्व प्रायः उन्हीं को दिया जाता है. लेकिन यदि पुत्र अनुपस्थित हो या संतान न हो, तो पति को यह अधिकार मिलता है. कई धार्मिक ग्रंथों और पुराणों में उल्लेख है कि पति भी पत्नी को मुखाग्नि दे सकता है. महाहिंदुस्तान और गरुड़ पुराण जैसे ग्रंथों में इसके उदाहरण मिलते हैं.
सामाजिक व्यवस्था में हुआ बदलाव
वर्तमान समय में सामाजिक व्यवस्था में बदलाव के साथ यह अधिकार भाई, भतीजा, दामाद और यहां तक कि बेटी को भी दिया जाने लगा है. आज कई ऐसे उदाहरण हैं, जहां बेटियों ने अपनी मां को मुखाग्नि दी और समाज ने उसे सम्मानपूर्वक स्वीकार भी किया.
धर्म का सार श्रद्धा और कर्तव्य में निहित है. इसलिए यदि कोई निकट संबंधी पूरी श्रद्धा से यह अंतिम कर्तव्य निभाना चाहता है, तो वह धार्मिक रूप से मान्य माना गया है. निष्कर्ष के रूप में, स्त्री को मुखाग्नि देने का अधिकार सबसे पहले पुत्र को है, परंतु परिस्थिति के अनुसार पति, अन्य पुरुष परिजन या बेटी भी यह कर्तव्य निभा सकते हैं. यह एक सकारात्मक बदलाव है, जो परंपरा और आधुनिक सोच के संतुलन को दर्शाता है.
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