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संविधान निर्माण के वक्त धर्मनिरपेक्ष और समाजवाद जैसे शब्द नहीं थे संविधान का हिस्सा, इमरजेंसी के वक्त इन्हें जोड़ा गया

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Socialist Secular Amendment : आरएसएस के नेता दत्तात्रेय होसबोले ने संविधान की प्रस्तावना में धर्मनिरपेक्ष और समाजवादी शब्द जोड़े जाने पर सवाल उठाएं हैं और कहा है कि ये शब्द हिंदुस्तानीय संविधान में निर्माण के वक्त से नहीं हैं, इन्हें जोड़ा गया है, इसलिए इसकी जरूरत पर चर्चा की जानी चाहिए. दत्तात्रेय होसबोले ने इमरजेंसी के 50 वर्ष पूरे होने के अवसर पर आयोजित कार्यक्रम में उक्त बातें कहीं हैं. होसबोले के इस बयान का समर्थन करते हुए केंद्रीय कृषि मंत्री शिवराज सिंह चौहान ने भी यह कहा है कि समाजवादी और धर्मनिरपेक्ष जैसे शब्द हमारी संस्कृति का हिस्सा नहीं हैं. हमारी संस्कृति में सर्वधर्म समभाव की बात की जाती है ना कि धर्मनिरपेक्षता की, इसलिए इनकी जरूरत हमें नहीं है. उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ ने भी इस मसले पर बयान दिया है कि किसी भी देश के संविधान की प्रस्तावना में बदलाव नहीं किया जाता है, लेकिन इमरजेंसी के दौरान यह किया गया. जो कहीं से भी सही नहीं है.

धर्मनिरपेक्ष और समाजवादी शब्दों पर हुई शुरू नेतृत्व का हिस्सा बनते हुए विपक्ष के नेता राहुल गांधी ने कहा कि आरएसएस का असली चेहरा सामने आ गया है. दरअसल आरएसएस और बीजेपी को देश में संविधान नहीं चाहिए, उन्हें देश में मनुस्मृति चाहिए.

धर्मनिरपेक्ष और समाजवादी शब्द पर क्यों हो रहा है विवाद?

धर्मनिरपेक्ष और समाजवादी शब्द की जरूरत संविधान में है या नहीं इस बात को लेकर नेतृत्व हो रही है और बयानबाजी का दौर जारी है. दरअसल 1950 में जब हिंदुस्तान का संविधान लागू हुआ, उस वक्त संविधान की प्रस्तावना में समाजवादी और धर्मनिरपेक्ष शब्द जुड़े हुए नहीं थे. 1976 में संविधान के 42वें संशोधन द्वारा धर्मनिरपेक्ष और समाजवादी शब्द को संविधान की प्रस्तावना में जोड़ा गया है. हालांकि 42वें संविधान संशोधन के बाद भी देश में कई बार संविधान संशोधन हुए, लेकिन इन शब्दों का हटाने की जरूरत महसूस नहीं की गई. किसी भी देश के संविधान की प्रस्तावना को उस संविधान की आत्मा कहा जाता है, जिसमें संविधान की मूल बातें शामिल होती हैं. अब जबकि आरएसएस नेता दत्तात्रेय होसबोले के बयान के बाद देश में धर्मनिरपेक्ष और समाजवादी जैसे शब्दों की जरूरत संविधान में है या नहीं इसपर चर्चा शुरू हो गई है. हमें यह जानना चाहिए कि संविधान निर्माता डाॅ भीमराव अंबेडकर और संविधान सभा के तमाम दिग्गजों ने इसे संविधान की प्रस्तावना में शामिल क्यों नहीं किया था.

42वें संविधान संशोधन में इन शब्दों को क्यों जोड़ा गया?

1975 में जब इंदिरा गांधी ने देश में इमरजेंसी की घोषणा की तो उनपर कई तरह के दबाव थे. उनका चुनाव रद्द कर दिया गया था और नैतिकता की बात करें, तो उन्हें पद पर बने रहने का कोई अधिकार नहीं था. देश में 1976 में लोकसभा चुनाव होना था, लेकिन 12 जून 1975 को जब इलाहाबाद हाईकोर्ट ने इंदिरा गांधी के चुनाव को रद्द किया और अगले छह साल तक उनके चुनाव लड़ने पर प्रतिबंध लगाया तो अपनी प्रशासन को बचाने के लिए इंदिरा गांधी ने देश में आपातकाल लगाया और संविधान के 42 संशोधन द्वारा संविधान में भारी बदलाव किए. इसके तहत सुप्रीम कोर्ट के अधिकारों को सीमित किया गया और संसद की सर्वोच्चता को कायम किया गया. साथ ही धर्मनिरपेक्ष और समाजवादी जैसे शब्द संविधान की प्रस्तावना में डाले गए. इनके जरिए इंदिरा गांधी यह साबित करना चाहती थीं कि वो गरीबों की हितैषी थीं. उन्होंने गरीबी हटाओ जैसा नारा दिया था, जिसे उन्होंने समाजवाद से जोड़ा. हालांकि हमारे देश का समाजवाद चीन और रूस के समाजवाद से बिलकुल था. विधायी मामलों के जानकार अयोध्या नाथ मिश्र ने नया विचार के साथ बातचीत में कहा कि हमारे संविधान निर्माताओं ने भविष्य में संशोधन की संभावनाओं को खुला रखा था, तभी संविधान की प्रस्तावना में धर्मनिरपेक्ष और समाजवादी जैसे शब्द जोड़े गए. अब तक देश के संविधान में 100 से अधिक संशोधन हो चुके हैं, क्योंकि समय के अनुसार बदलाव जरूरी होता है. लेकिन यहां गौर करने वाली बात यह है कि संविधान के बारे में जो कुछ बात हो, वो तथ्यों के आधार पर हो, व्यक्तिगत स्वार्थ या विचारों के आधार पर नहीं. इसी वजह से सर्वानुमति और बहुमत जैसे उपाय संविधान में उपलब्ध हैं.

समाजवाद और धर्मनिरपेक्ष जैसे शब्दों पर संविधान सभा में चर्चा हुई थी ?

हिंदुस्तानीय संविधान को अंगीकार करने से पहले संविधान सभा में समाजवाद और धर्मनिरपेक्ष दोनों ही शब्दों पर चर्चा हुई थी, लेकिन इन दोनों शब्दों को मूल संविधान में जगह नहीं दी गई थी. 1976 में आपातकाल के दौरान 42वें संविधान संशोधन के जरिए संविधान की प्रस्तावना (Preamble) में इन शब्दों को जोड़ा गया था. संविधान सभा में बहस के दौरान डाॅ भीमराव अंबेडकर और पंडित नेहरू जैसे नेताओं का यह मत था कि धर्मनिरपेक्षता हिंदुस्तानीय संविधान की आत्मा है, जहां धर्म के आधार पर नागरिकों के बीच भेदभाव की कोई संभावना नजर नहीं आती है. अनुच्छेद 25-28 में धार्मिक स्वतंत्रता का जिक्र है इसलिए धर्मनिरपेक्षता को अलग से संविधान में शामिल करने की कोई जरूरत नहीं है. उस वक्त यह माना गया था कि देश का कोई धर्म नहीं होगा और राज्य यानी देश धर्म के आधार पर नागरिकों के बीच भेदभाव नहीं करेगा.

1950 में लागू हुए संविधान की प्रस्तावना में लिखा था-

‘हम हिंदुस्तान के लोग, हिंदुस्तान को एक सम्पूर्ण प्रभुत्व सम्पन्न लोकतांत्रिक गणराज्य बनाने तथा उसके सभी नागरिकों को सामाजिक, आर्थिक और नेतृत्वक न्याय, विचार, अभिव्यक्ति, विश्वास, आस्था और उपासना की स्वतंत्रता, प्रतिष्ठा और अवसर की समानता प्रदान करने तथा उन सभी के बीच व्यक्ति की गरिमा और राष्ट्र की एकता सुनिश्चित करने वाली बंधुता को बढ़ावा देने का दृढ़ संकल्प लेते हैं; इस संविधान सभा में आज छब्बीस नवम्बर, 1949 को इस संविधान को अंगीकृत, अधिनियमित और आत्मार्पित करते हैं।’

संशोधन के बाद प्रस्तावना इस प्रकार है-

हम, हिंदुस्तान के लोग, हिंदुस्तान को एक ‘[संपूर्ण प्रभुत्व संपन्न
समाजवादी पंथनिरपेक्ष लोकतंत्रात्मक गणराज्य ] बनाने के लिए,
तथा उसके समस्त नागरिकों को :
सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक न्याय,
विचार, अभिव्यक्ति, विश्वास, धर्म
प्राप्त कराने के लिए,
तथा उन सब में
और उपासना की स्वतंत्रता,
प्रतिष्ठा और अवसर की समता
व्यक्ति की गरिमा और 2[ राष्ट्र की एकता
और अखंडता] सुनिश्चित करने वाली बंधुता
बढ़ाने के लिए
दृढ़संकल्प होकर अपनी इस संविधान सभा में आज तारीख
26 नवम्बर, 1949 ई० (मिति मार्गशीर्ष शुक्ला सप्तमी, संवत् दो
हजार छह विक्रमी) को एत‌द्वारा इस संविधान को अंगीकृत, अधिनियमित और आत्मार्पित करते हैं ।

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विनोद झा
संपादक नया विचार

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