Diwali : दीपावली का यह त्योहार अमर है. तभी तो हर वर्ष कार्तिक अमावस्या की रात में पुनर्जन्म की चमत्कारपूर्ण घटना होती है. जरा गौर से देखिए दीपावली की निर्मल रात को-न कहीं धूल, न धुआं और न ही कोई कीच और मैला. भीतर और बाहर, दोनों ओर जैसे किसी ने स्नान करा दिया हो. इस त्रिलोकव्यापी स्वच्छता के बीच दीपावली पृथ्वी पर इस तरह उतरती है, मानो हमारे अंतर्मन में चरित्र के सर्वश्रेष्ठ नायक श्रीराम अयोध्या लौटकर माता कौशल्या की गोद में धीरे-धीरे उतर रहे हों. उस करुणामय शांति और निर्मलता में पूरी सृष्टि जैसे किसी तुलसीवन की तरह अपूर्व सुगंध से महक-गमक उठती है.
यही दीपावली की अमरता है कि वह हर वर्ष अपनी ज्योति को थोड़ा और विस्तृत कर देती है. ‘रोशनी’ शब्द का उद्गम संस्कृत के ‘रोचना’ से है और ‘ललिता-सहस्रनाम स्तोत्र’ में देवी का एक नाम ‘रोचनावती’ भी है. इसीलिए दीपावली स्थूल अर्थ में केवल रोशनी का पर्व नहीं है, बल्कि आध्यात्मिक प्रकाश को जानने-पहचानने का भी महापर्व है. आज जो दीप हमारे घर-आंगन में जल रहे हैं और अपनी रोशनी बिखेर कर पूरी पृथ्वी को आलोकित कर रहे हैं, वे कोई आज-कल की रचना नहीं हैं. इन दीपों की उम्र ब्रह्मांड जितनी ही प्राचीन है. इसलिए तो इनका महत्व भी है. यह कथा भले ही लोककथा हो कि असुरों का वध कर और सीता माता का उद्धार कर श्रीराम के अयोध्या लौटने पर हर्षोल्लास में दीपावली मनायी गयी थी, लेकिन यह जनश्रुति हमारी चेतना में इतनी गहराई से अंकित है कि हर वर्ष का यह उत्सव भगवान श्रीराम के पुनरागमन का प्रतीक बन गया है.
यह दरअसल वह क्षण था, जब अयोध्या में पादुका-प्रशासन का अंत हुआ और रामराज्य की स्थापना हुई. उस रामराज्य की विशेषता यह थी कि उसमें राजा नहीं, बल्कि प्रजा प्रमुख थी. अयोध्या की उस रात्रि में जले दीपों की किरणें आज भी हमारे घरों में झिलमिला रही हैं, अपनी रोशनी बिखेर रही हैं. उन्होंने त्रेतायुग का वह उत्साह देखा था, सरयू में अपना प्रतिबिंब निहारा था, माता कैकेयी के मन से मिटते हुए अंधकार को देखा था और मंथरा की कपट-छाया को समाप्त होते अनुभव किया था. वे दीप हमें आज भी इसका स्मरण कराते हैं कि अपने भीतर की लंका को जलाओ और वहां रावण की लंका को मिटाकर राम की अयोध्या बसाओ.
लेकिन आज अयोध्या कहां है? हमारे नगरों में तो आज लंका जैसी चकाचौंध व्याप्त है. वास्तव में वहां धन ने ईश्वर को विस्थापित कर दिया है. दीपावली की रोशनी वहां झिलमिलाती तो है, लेकिन उसकी किरणें गांवों, किसानों और निर्धनों तक पहुंचने से पहले ही थक जाती हैं. यह अच्छा हुआ कि श्रीराम की अयोध्या चौदह वर्ष में नहीं बदली थी, वरना शायद वह भी अपनी अयोध्या को नहीं पहचान पाते! श्रीराम की अयोध्या में धर्म था, समता थी. गोस्वामी तुलसीदास ने ‘रामचरितमानस’ में लिखा है कि श्रीराम की नगरी अयोध्या में कोई भी व्यक्ति दुखी, दरिद्र और दीन नहीं था, ‘नहिं दरिद्र कोऊ दुखी न दीना’. उस अयोध्या नगरी में प्रकाश ही प्रकाश था. लेकिन हमारे नगरों में बढ़ती अनैतिकता, प्रदूषण, स्वार्थ और नेतृत्व की अशांति दीपावली की ज्योति से हमें दूर ले जा रहे हैं. ऐसे में यदि श्रीराम लौट भी आयें, तो क्या वह इस दीपावली को पहचान पायेंगे?
दीपावली केवल अंधकार पर उजाले की विजय का महापर्व ही नहीं है, यह उस संबंध का अन्वेषण भी है, जो उजाले और अंधेरे के बीच है. कहीं ऐसा न हो कि किसी का उजाला किसी और के अंधेरे की कीमत पर टिका हुआ हो. यदि ऐसा हुआ, तो फिर वनवास से लौटे राम शायद सरयू में अपने चरण धोये बिना ही पुनः वन को प्रस्थान न कर जायें! दीपोत्सव शब्द जितना पुराना है, उतनी ही पुरानी दरअसल इसकी साधना है-कालिदास, भवभूति और महाहिंदुस्तान से भी पुरानी. पांच दिनों तक चलने वाले इस उत्सव में लक्ष्मी की पूजा का विधान है. वह लक्ष्मी, जो समुद्र की अमृत-सहोदरा हैं, और जो अंधेरी रात में प्रकट होकर भी स्वर्ण वर्षा करती हैं. वैदिक ‘श्रीसूक्त’ में उन्हें धरती माता के रूप में वंदित किया गया है, जो श्रम, सौंदर्य और समृद्धि की अधिष्ठात्री हैं.
हिंदुस्तानीय चिंतन यह कहता आया है कि अंधकार अनादि है और वह सृष्टि के पूर्व से ही विद्यमान है. लेकिन उसे परास्त करने का संकल्प ही वस्तुत: मनुष्य की विजय है. जब आदिमानव ने इस पृथ्वी पर पहली बार दीप जलाया होगा, तब उसने ईश्वर से प्रार्थना की थी, ‘तमसो मा ज्योतिर्गमय’. यही दीप मानव की अंधकार पर विजय का पहला शस्त्र है, जो स्वयं जलकर भी दूसरों के लिए मार्ग प्रकाशित करता है. सूरज और चांद का प्रकाश दिव्य है, लेकिन दीपावली में जलता हुआ दीप उनसे भी महान, उनसे भी दिव्य है, क्योंकि यह मानव की चेतना से जन्मा है. यह उसके परिश्रम, उसकी आस्था और उसके संकल्प का परिणाम है. दीपावली की रात में ये दीप केवल हमारे घरों को ही रोशन नहीं करते, बल्कि हमारे भीतर के अंधेरे से भी युद्ध करते हैं. यही युद्ध, यही संघर्ष और यही प्रकाश दीपावली के शाश्वत निहितार्थ हैं.
(ये लेखक के निजी विचार हैं.)
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