Bhagat Singh: शहीदे-आजम भगत सिंह पर एक-दो नहीं, बल्कि दर्जनों फिल्में बन चुकी हैं. कभी राजकुमार संतोषी की द लीजेंड ऑफ भगत सिंह, तो कभी मनोज कुमार की शहीद—हर दौर का सिनेमा इस नौजवान क्रांतिकारी को अपनी-अपनी तरह से परदे पर उतारता रहा. पर बहुत कम लोग जानते होंगे कि खुद भगत सिंह का सिनेमा से रिश्ता क्या था.
शहीदे-आजम भगत सिंह न सिर्फ किताबों के गहरे पाठक और विचारक थे, बल्कि रंगमंच पर भी शानदार अभिनेता रहे. कॉलेज के दिनों में उन्होंने कई नाटकों में अभिनय किया और दर्शकों को मुग्ध कर लिया. उनका प्रसिद्ध पगड़ी वाला चित्र भी दरअसल नेशनल कॉलेज, लाहौर के ड्रामा क्लब के ग्रुप फोटो से लिया गया है.
फिल्में देखने का शौक़ उन्हें अधिक नहीं था. उनका समय किताबों, विचारों और आंदोलन की तैयारियों में बीतता था. फिर भी एक फिल्म उन्होंने देखी—बल्कि अपने साथियों से जबरन दिखवाई. यह फिल्म थी अंकल टॉम्स केबिन, जो गुलामों पर हो रहे अत्याचार और आजादी की लड़ाई की कहानी कहती थी. इसे देखकर भगत सिंह ने कहा था—
“हर क्रांतिकारी को यह फिल्म देखनी चाहिए.”
पर्दे पर गढ़ी गई छवि और असली भगत सिंह
भगत सिंह का जीवन अपने आप में इतना प्रेरणादायी था कि हिंदी सिनेमा ने उन्हें बार-बार परदे पर उतारा. उनकी शहादत को नाटकीय अंदाज में पेश किया गया, उनके नारों और गीतों को फिल्मी धुनों में ढाला गया. पर असली भगत सिंह को सिर्फ उनके क्रांतिकारी साहस से नहीं समझा जा सकता.
उनका व्यक्तित्व सिर्फ पिस्तौल और बम तक सीमित नहीं था. वे बेहद हंसमुख, सजीव, मसखरे, सहृदय और संतुलित इंसान थे. यह पहलू अक्सर फिल्मों में पीछे छूट जाता है.
स्वभाव ही किसी व्यक्ति के असली व्यक्तित्व की पहचान है. कोई आदमी कभी-कभी परिस्थितियों या आवेश में अद्भुत काम कर सकता है, पर उसका स्वभाव उसके रोजमर्रा के जीवन से झलकता है. भगत सिंह के साथी बताते हैं कि उनका स्वभाव इतना सहज और उदार था कि कोई भी उनसे मिलते ही उनका हो जाता था. अंग्रेज जेलर तक उनकी सरलता से प्रभावित हो जाते थे.
रंगमंच और अभिनय से रिश्ता
लाहौर के नेशनल कॉलेज में पढ़ते समय भगत सिंह नाटकों में भाग लेते थे. ‘हिंदुस्तान दुर्दशा’ नाटक में उनके अभिनय ने दर्शकों को इतना प्रभावित किया कि लोग उन्हें असली अभिनेता मान बैठे. स्वर के उतार-चढ़ाव, संवादों की ताकत और साधारण अंग-भंगिमा में भी उनकी नाटकीयता झलकती थी.
अभिनय ने उनकी वक्तृत्व कला को भी धार दी. जब वे अपने साथियों या जनता को संबोधित करते थे, तो उनके शब्द दिल से उठकर सीधे सामने वाले के दिल में उतर जाते थे. यही कारण था कि वे जहां भी बोलते, लोग मंत्रमुग्ध होकर सुनते.
उनका स्वभाव लोकतांत्रिक था. वे कभी अपनी राय को जबरन थोपने वाले नहीं थे. यदि बहुमत उनके खिलाफ निर्णय ले लेता, तो वे उसी फैसले को मानते और उसकी सफलता के लिए पूरा प्रयास करते. गलती मान लेने में भी उन्हें संकोच नहीं था.
वे मजाकिया अंदाज में रहते थे. साथी क्रांतिकारी अक्सर उनकी हंसी-ठिठोली का आनंद उठाते. यहां तक कि जेल में भी वे अपने मजाक और चुटकुलों से उदासी को दूर भगा देते थे.
सिनेमा का किस्सा : अंकल टॉम्स केबिन
अब आते हैं उस मशहूर प्रसंग पर, जब भगत सिंह ने फिल्म देखने की जिस की थी.
साल 1928-29 के आसपास की बात है. लाहौर में अमेरिकी उपन्यासकार हैरियट बीचर स्टो की किताब Uncle Tom’s Cabin पर बनी फिल्म लगी थी. यह फिल्म गुलामों के संघर्ष और अत्याचारों की मार्मिक दास्तान कहती थी.
भगत सिंह अपने साथियों विजय कुमार सिन्हा और भगवानदास माहौर के साथ एक सभा से लौट रहे थे. पोस्टर देखा तो वे ठिठक गए और बोले—
यह फिल्म जरूर देखनी चाहिए.
पर समस्या थी पैसों की. क्रांतिकारी दल के पास रोजमर्रा के खाने तक के लिए मुश्किल से पैसे जुटते थे. नेता चन्द्रशेखर आजाद रोज चार आने देते थे, जिसमें से दो आने में एक वक्त का खाना ही आता था. ऐसे में फिल्म के टिकट खरीदना अनुशासन के खिलाफ था.
भगवानदास माहौर के पास डेढ़ रुपये थे, पर उन्होंने पैसे देने से साफ इनकार कर दिया. भगत सिंह ने कला पर लंबा भाषण दिया—क्यों क्रांतिकारियों को यह फिल्म देखनी चाहिए, कैसे यह गुलामी और मुक्ति के संघर्ष को समझने का मौका देगी. पर माहौर टस से मस नहीं हुए.
फिर बहस, फिर मजाक, फिर जिद. आखिरकार भगत सिंह ने अभिनय का सहारा लिया—“मैं तो तुमसे जबरदस्ती पैसे छीन रहा हूं और तुम्हें पीटकर टिकट लाने भेज रहा हूं.” माहौर जी हंस पड़े और मजबूरी में पैसे दे दिए.
टिकट खिड़की पर भीड़ थी. भगत सिंह खुद भीड़ में कूद पड़े और लौटे तो हाथ में तीन टिकट थे, पर दो दिन का खाने का पैसा गायब.
अब दुविधा यह थी कि फिल्म तो देख ली जाएगी, पर अगले दो दिन भूखे कैसे रहेंगे और आजाद जी को क्या जवाब देंगे.

फिल्म और आजाद को सुनाई कहानी
फिल्म देखने के बाद तीनों बाहर निकले तो भूख से पेट गुड़गुड़ा रहा था, लेकिन चेहरे पर संतोष था. अंकल टॉम्स केबिन ने उन पर गहरी छाप छोड़ी थी. निवास पर लौटते ही भगत सिंह ने बिना रुके फिल्म की पूरी कहानी चन्द्रशेखर आजाद को सुनानी शुरू कर दी. उनकी शैली इतनी रोचक और जीवंत थी कि सुनते-सुनते आजाद खुद कहानी में डूब गए.
अंत में भगत सिंह ने कहा—“असल में यह फिल्म हर क्रांतिकारी को देखनी चाहिए. इसी लिए हम इसे देखकर आ रहे हैं.
आजाद मुस्कराए. नाराजगी का खतरा टल गया और खाने के पैसे भी फिर से मिल गए.
यह घटना मामूली नहीं है. यह बताती है कि भगत सिंह कला और साहित्य को कितना गंभीरता से लेते थे. वे मानते थे कि क्रांतिकारी के लिए सिर्फ हथियार चलाना ही काफी नहीं, बल्कि विचारों और संवेदनाओं से लैस होना भी जरूरी है.
वे कहते थे कि किताबें, नाटक और कला का अनुभव इंसान के भीतर गहरी संवेदना जगाता है. यही संवेदना उसे जनता के दुख-दर्द से जोड़ती है और क्रांति के रास्ते पर दृढ़ बनाती है.
जब भगत सिंह पर फिल्म बनी
जब भगत सिंह अपने साथियों के साथ अंकल टॉम्स केबिन देख रहे थे, तब शायद उन्हें अंदाजा भी नहीं रहा होगा कि आगे चलकर उन पर भी कई फिल्में बनेंगी. आने वाली पीढ़ियां उन्हें परदे पर देखकर प्रेरणा लेंगी, ठीक वैसे ही जैसे उन्होंने गुलामों की दास्तान से प्रेरणा ली थी.
असल में यही उनका जीवंत व्यक्तित्व था—वे हंसी-मजाक में भी संदेश छोड़ जाते, अभिनय में भी प्रेरणा दे जाते और सिनेमा की स्क्रीन पर भी इतिहास को जोड़ देते. वे सचमुच आनन्द-मूर्ति थे—जहां जाते, वहां जीवन भर देते.
संदर्भ – वीरेन्द्र सिन्धु, युगद्रष्ट्रा भगतसिंह और उनके मृत्युंजय पुरखे, राजपाल एंड संन्स
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