Bihar News: बिहार की सियासत में कभी कोई खिलाड़ी बोर्ड पर रहता है तो कभी मोहरे की शक्ल में इस्तेमाल होता है. सांसद राजेश रंजन उर्फ पप्पू यादव आज उसी नेतृत्वक ‘शतरंज’ का एक अनूठा सिपाही हैं जिनका हर कदम नजर आता है लेकिन चाल कौन चला रहा है ये हमेशा साफ नहीं होता.
जन अधिकार पार्टी: खत्म हुई या छिपाई जा रही है?
जन अधिकार पार्टी लोकतांत्रिक नाम लंबा है लेकिन आजकल ये पार्टी खुद नेतृत्वक लाइफ सपोर्ट सिस्टम पर टिकी दिखती है. कागज पर इसका कांग्रेस में विलय हो चुका है पर जमीन पर न नेता को सीट मिली नहीं कार्यकर्ताओं को पहचान. कांग्रेस ने पप्पू यादव को लोकसभा चुनाव 2024 से पहले “घर में आने” की दावत तो दी लेकिन जैसे ही वो दरवाजे पर पहुंचे, उनको कहा गया “जरा ठहरिए…अंदर जगह देखनी है.”
कांग्रेस की ‘डबल गेम थ्योरी’
दरअसल, कांग्रेस इस वक्त एक सियासी ब्लफ स्पोर्ट्स रही है. इधर पप्पू यादव को टिकट नहीं दिया, उधर राजद के पास ये ताश की गड्डी ले जाकर कह दिया है – देखो, अगर तुमने मनपसंद सीटें नहीं दीं तो हम पप्पू को उतार देंगे सीमांचल के मैदान में. सीमांचल में भले पप्पू यादव की पार्टी का खाता कभी नहीं खुला हो पर असर ऐसा है कि वोटों में सेंध अब भी लग सकती है. यही डर राजद को परेशान करता है और कांग्रेस को ‘बारगेनिंग पॉवर’ देता है. कांग्रेस की मौन रणनीति कि वह पप्पू यादव को पूरी तरह शामिल किये बिना उन्हें एक ”पॉवर प्रॉक्सी” के रूप में इस्तेमाल कर रही है.
राजद की उलझन: ना निगलते बने, ना उगलते
राजद भी जानता है कि पप्पू यादव की हाजिरी न हो तो कोसी व सीमांचल की लड़ाई आधी रह जाती है. लेकिन, पप्पू को लाना मतलब कांग्रेस को और सीट देना और ये राजद को मंजूर नहीं है. अब इसमें कांग्रेस का स्पोर्ट्स यह है कि पप्पू यादव को पूरी तरह अपनाया नहीं और पूरी तरह छोड़ा भी नहीं है. सीधे शब्दों में कहें तो कांग्रेस ने पप्पू यादव को सियासी शॉक एब्जॉर्बर बना दिया है. जब राजद उखड़ने लगे तो उन्हीं का नाम लेकर फिर से बैलेंस बना लो.
जन अधिकार पार्टी : नेता जी आगे, संगठन पीछे
पार्टी के नाम पर अब सिर्फ एक चेहरा बचा है वह हैं पप्पू यादव. बाकी तो जैसे राघवेंद्र कुशवाहा राजद में, रघुपति सिंह भाजपा में, भाई दिनेश भी राजद में और अखलाक अहमद जैसे ‘राष्ट्रीय अध्यक्ष’ को खुद ही नहीं पता कि वे पार्टी में हैं या नहीं.
‘कैंची’ नहीं चली, लेकिन डर बना रहा
2015 में हॉकी स्टिक, 2020 में कैंची छाप, और 2024 में निर्दलीय झंडा. हर बार पप्पू यादव ने चुनावी लड़ाई लड़ी, हारे, लेकिन चर्चा में रहे. अब 2025 सामने है और सवाल वहीं. क्या पप्पू यादव फिर मोहरा बनेंगे या इस बार कोई चाल खुद चलेंगे?
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चुनावी धरातल पर सियासी तलवारबाजी
नेतृत्वक जानकार बताते हैं, पप्पू यादव फिलहाल कांग्रेस के हथियार हैं, दोस्त नहीं. राजद के लिए वह रोक भी हैं और तोड़ भी और बिहार की जनता जो अभी देख रही है कि सीमांचल का यह बागी सांसद क्या इस बार खुद को साबित करेगाया फिर एक बार फिर किसी और के गेम प्लान का हिस्सा बन जायेगा.
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