Bihar Election 2025: बिहार की नेतृत्व एक ऐसा रंगमंच है जहां हर किरदार का एक “गठबंधन अध्याय” जरूर होता है. कोई अकेला नहीं चलता, सब किसी न किसी ‘जोड़’ में बंधे हैं. पिछले 35 साल में ऐसा कभी नहीं हुआ जब कोई बड़ी पार्टी ने अकेले बहुमत हासिल किया हो. इस कहानी में नीतीश, लालू, पासवान और कभी कांग्रेस, सबका एक साझेदारी वाला रोल रहा है. सवाल यही है, क्या बिहार को गठबंधन की लत लग गई है?.
नीतीश और लालू की ‘सियासी जुगलबंदी’
अगर बिहार की सत्ता की स्क्रिप्ट देखी जाए, तो 1990 से अब तक दो ही चेहरे हर फ्रेम में मुख्य रूप से रहे हैं, लालू प्रसाद यादव और नीतीश कुमार. लालू ने 1990 में बीजेपी के समर्थन से मुख्यमंत्री की कुर्सी पाई, फिर उसी बीजेपी के खिलाफ महागठबंधन बनाया. नीतीश कुमार भी कम पीछे नहीं रहे, वे बीजेपी से नाता जोड़कर मुख्यमंत्री बने, फिर आरजेडी से मिल गए, फिर दोबारा एनडीए में लौटे. 35 साल में नीतीश कुमार ने 9 बार मुख्यमंत्री पद की शपथ ली, लेकिन हर बार किसी न किसी गठबंधन के सहारे. लालू और नीतीश की नेतृत्व इस बात की मिसाल है कि सियासी कुर्सी का रास्ता अब विचारों से नहीं, जोड़-घटाव और गठबंधन के गलियारों से तय होता है.
जातीय गणित का गठजोड़
बिहार की नेतृत्व जातीय समीकरणों के बिना अधूरी है. यादव, कुर्मी, भूमिहार, मुसलमान, हर वर्ग को एक “राजनैतिक ठिकाना” चाहिए, और यही ठिकाने ही गठबंधन की जमीन बनाते हैं. उदाहरण के लिए, आरजेडी का ‘MY समीकरण’ (मुस्लिम-यादव) तभी काम करता है जब कांग्रेस या वाम दल जैसे सहयोगी दल उसके साथ आएं. भाजपा को भी नीतीश या जीतनराम मांझी जैसे सहयोगियों की जरूरत पड़ती है, ताकि उसे सवर्ण से लेकर अतिपिछड़ा वोट तक एक साथ मिल सके. यानी बिहार में “किसका वोट किसके पास जाएगा” यही असली विज्ञान है, और गठबंधन ही उसकी केमिस्ट्री.
गठबंधन की मजबूरी या बीमारी?
1967 से अब तक बिहार ने 9 बार प्रशासनें बदली हैं, कई बार मुख्यमंत्री का कार्यकाल हफ्ते तक ही चल सकी हैं. इन सबसे नेतृत्वक पार्टियों ने जो आउटपुट निकाला वो है, “अकेले लड़ना नुकसान का सौदा है”. यही सोच अब गहराई तक बैठ गई है. चुनाव लड़ने से पहले ही पार्टियां पोस्ट-इलेक्शन अरेंजमेंट सोचने लगती हैं. आज की तारीख में महागठबंधन में 7 दल और एनडीए में 5 सहयोगी दलें शामिल हैं, जिनके बीच सीट बंटवारे को लेकर अंदरखाने जंग भी देखने को मिला था. पर यह सच भी है कि जैसे ही नतीजे बदलते हैं, गठबंधन भी बदल जाता है.
क्यों पड़ गई है बिहार को “गठबंधन की आदत”?
असल में, बिहार में कभी किसी एक पार्टी को 35% से ज़्यादा वोट नहीं मिले. यानी, अकेले दम पर कोई पार्टी यहां जीत नहीं पाती. इसलिए सबको दोस्ती करनी पड़ती है. ये सिलसिला समाज की अलग-अलग जातियों से शुरू हुआ और अब नेतृत्व की मजबूरी बन गया है. जितनी जातियां, उतने नेता और सबको थोड़ा-थोड़ा हिस्सा चाहिए. नतीजा ये हुआ कि जनता आज तक नहीं समझ पाई कि असली जिम्मेदारी किसकी है?
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